बाबू (लोग), समझो इशारे..
ज्यों-ज्यों स्वाइन-फ्लू देश के विभिन्न प्रांतों में फैलता जा रहा है, त्यों-त्यों हमारा खाता-पीता मध्यवर्ग देश के उपेक्षित सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवातंत्र में आई भयावह गिरावट से परिचित हो रहा है।...
ज्यों-ज्यों स्वाइन-फ्लू देश के विभिन्न प्रांतों में फैलता जा रहा है, त्यों-त्यों हमारा खाता-पीता मध्यवर्ग देश के उपेक्षित सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवातंत्र में आई भयावह गिरावट से परिचित हो रहा है। वित्तशास्त्री एलबर्ट. ओ. हर्शमैन के अनुसार व्यवस्था में गिरावट आने से नागरिकों में दो तरह की प्रतिक्रियाएँ संभव हैं। या तो वे मुखर विरोध द्वारा स्थिति में बदलाव की माँग पर अड़ जाते हैं या फिर स्थिति से पलायन कर जाते हैं। पहली प्रतिक्रिया नागरिकों और राज्यव्यवस्था द्वारा समवेत मशक्कत की माँग करती है। दूसरी प्रतिक्रिया सुविधावादी है। और इसे ही शिक्षा तथा स्वास्थ्य कल्याण के दोनों क्षेत्रों में भारत के खाते-पीते मध्यवर्ग ने अंगीकार किया है। सरकारी स्कूलों का जब स्तर गिरने लगा तो उन्होंने सरकार से उसकी बेहतरी की माँग नहीं की, बल्कि अपने नौनिहालों को थोक के भाव निजी स्कूलों में भेजना शुरू कर दिया। ऐसे ही सरकारी हस्पतालों में बीमारों की कतारें लंबी होते जाने और अपर्याप्त सुविधाओं को लेकर भी उन्होंने इन संस्थानों के बेहतर रखरखाव के लिए सरकार पर दबाव बनाने की बजाए निजी डॉक्टरों और उनके पॉश नए निजी अस्पतालों को अपना लिया। सम्पन्न उपभोक्ताओं कासार्वजनिक क्षेत्र से लगातार दूर होना वहाँ गैर-जवाबदेही और राजनैतिक दखलंदाजी को हरी झंडी देता चला गया। उकता कर ज्यादातरप्रशिक्षित डॉक्टर भी धीमे-धीमे निजी तबके में चले गए। जैसी कि सम्पन्न वर्ग की आदत है, स्वाइन-फ्लू की जॉच और तीमारदारी के लिए सरकारी हस्पताल का पहली बार ग्राहक बन कर वह तुरत तंत्र को कोसने बैठ गया है। उसे कष्ट है कि इन हस्पतालों में ओ.पी.डी. इतने सुस्त और अव्यवस्थित क्यों हैं? डॉक्टरों और बीमारी की जैविक जॉच करने वाली प्रयोगशालाओं का यहाँ इतना अकाल क्यों है? जीवन-मौत से जूझ रहे लाखों बीमारों के लिए जरूरी जीवनरक्षक उपकरणों और हार्ट-लंग मशीनों की तादाद सार्वजनिक हस्पतालों में क्यों इतनी अपर्याप्त है? वही सरकारी तंत्र जो गरीबों द्वारा यही सवाल उठाते ही उन्हें घुड़क देता है, अपना विनम्र मुखर बचाव कर रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय के मंत्री से लेकर बाबू तक पत्रकार सम्मेलन करके बता रहे हैं कि दुनिया के अन्य देशों की तुलना में कैसे हमारे हवाई अड्डे कहीं अधिक कड़ी सुरक्षा-चेकिंग द्वारा ही अब तक इस संक्रमण को रोके रहे हैं। कि हमारे डॉक्टर बहुत कुशल और अनुभवी हैं, अब आबादी ही इतनी बढ़ चुकी है, तो वे बेचारे भी क्या करें? दुष्प्रभावित शहरों में प्रयोगशालाओं की तालिकाएँ तुरत हाजिर कर दी गई हैं और निजी क्षेत्र से भी पूरी मदद लेने के आश्वासन दिए ज रहे हैं।
सरकारी स्वास्थ्य तंत्र के लचरपने का हौव्वा प्राय: वे ही लोग खड़ा कर रहे हैं, जो इस क्षेत्र की कमान निजी चिकित्सा तंत्र को सौंपने के पक्षधर हैं। और दूसरी तरफ सरकारी क्षेत्र की उत्तमता और निजी क्षेत्र की लालची अक्षमता का हौव्वा खड़ा करने वाले भी राजनैतिक औरआर्थिक हितों के मद्देनजर ही निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों के बड़ी तादाद में स्वास्थ्य क्षेत्र में आने की बुराई कर रहे हैं। अंशत: दोनों सच्चे भी हैं, और झूठे भी। लगातार फैल रहे स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निजी तबके का सार्वजनिक तबके के साथ सहअस्तित्व आज दुनिया में हरकहीं कायम है, और निजी क्षेत्र को हटा देने से सार्वजनिक क्षेत्र में रामराज्य आ जाएगा, ऐसा भी नहीं है। आजादी से एक साल पहले 1946 में आई भोर कमेटी की रपट ने भारत के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य कल्याण क्षेत्र की जरूरत को रेखांकित करते हुए उसके विशाल आकार और संभावित न्यूनतम बजट पर महत्वपूर्ण लेखा-जोखा पेश किया था। इसके बाद 1978 में सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के ऐतिहासिक आल्मा-आटा सम्मेलन के दौरान संगठन के अन्य सदस्यों के साथ 2020 तक देश के हर नागरिक को स्वास्थ्य सेवाएँ देने के इरादे वाले साझा घोषणा-पत्र पर दस्तखत भी किए थे। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की ही ताजा रपट के अनुसार आज इस मुहिम पर सरकारी बजट के पैमाने पर 175 सदस्यों की फेहरिस्त में (विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के बावजूद) भारत का दर्जा लगभग सबसे नीचा (171वाँ) है। कई गरीब अफ्रीकी मुल्क तथा नन्हा-सा द्वीप जापान भी भारत की तुलना में (5 प्रतिशत) सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर अपनी कुल राष्ट्रीय आय का कहीं बड़ा भाग खर्च कर रहे हैं। भारत के स्वास्थ्य बजट का बड़ा भाग (4.3 प्रतिशत) निजी क्षेत्र के खाते से आता है। हर वर्ष प्रतिरक्षा बजट बढ़ाने वाली सरकार सकल राष्ट्रीय आय का सिर्फ 0.9 प्रतिशत ही जन-स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर रही है। यह मौजूदा तंत्र के लिए नाकाफी, और नई योजनाओं के लिए तो हास्यास्पद रूप से अपर्याप्त है।
सुधी पाठकों को याद होगा कि हाल में बड़े जोर-शोर से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा मिशन शुरू किया गया था। उसकी ताजा रपट के अनुसार 2007-08 के बीच गाँवों में इस दौरान घोषित स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्य के स्तर पर दोनों में सुधार के बजाए गिरावट आई है। पोलियो का टीका पाने वाले बच्चों की तादाद 3.9 प्रतिशत घटी, डी.पी.टी. टीकों का भी 84 प्रतिशत लक्ष्य ही पूरा हुआ। खसरा के टीकों का भी 84 प्रतिशत ही अपेक्षित समूह तक पहुँचा। इसके साथ ही हस्पतालों में सुरक्षित जचगी पाने वाली माँओं की तादाद में 29 प्रतिशत तथा गर्भावस्था में टिटनेस का टीका पाने वालियों की तादाद में भी 3.5 प्रतिशत की कमी आई। यही नहीं कण्डोम प्रयोग में 61.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई और स्त्रियों में कॉपर-टी लगवाने वाली युवतियों की तादाद भी 11.2 प्रतिशत घटी। आज हमारे यहाँ रोज 900 मरीज टी.बी. से मरते हैं, हर साल 22 लाख बच्चे अकालमृत्यु के शिकार होते हैं, और एक लाख जवान माँएं प्रसूतिजनित रोगों की शिकार होकर दम तोड़ देती हैं।
दुनिया में हर कहीं निजी क्षेत्र अपना बजट रोगों के निवारण पर खर्च करने की बजाए निदान और उपचार से होने वाली कमाई में रुचि रखता है। रोगों की रोकथाम और टीकाकरण का काम सरकारी क्षेत्र ही करता है। इन सेवाओं में अदूरदर्शी कंजूसी बरते जाने के कारण भारत में पहले दवाओं के नियमित छिड़काव तथा निगरानी द्वारा लगभग निमरूल किए जा चुके मलेरिया, मस्तिष्क ज्वर, डेंगू, पोलियो जैसे संक्रामक रोग फिर से देशभर में सर उठा रहे हैं। इसी के साथ बढ़ती ग्लोबल आवाजही से बर्ड-फ्लू, स्वाइन-फ्लू, एड्स और नाइल-फ्लू जैसे परदेसी संक्रामक रोगों के नए वायरस भी देश में लगातार आ रहे हैं। रही-सही कसर ठसाठस भरे शहरों में पनप रहे जीवनशली जनित रोगों : उच्च रक्तचाप, मधुमेह, दमा वगैरह ने पूरी कर दी है।
हमें यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि भारत में अगर कभी हर किसी के लिए पुलिस प्रशासन, सार्वजनिक शिक्षा और चिकित्सा क्षेत्र की गुणवत्ता और कार्यक्षमता एक ही स्तर की बन जाएगी तो इसलिए नहीं कि इस पुण्य कार्य के लिए हमारे वित्तमंत्री या कॉपरेरेट बादशाहमानवीय लोकतांत्रिक मूल्यों से प्रेरित होकर खूब बड़ा बजट थमा देंगे। वह इसलिए हो पाएगा कि देश के हर वर्ग की जनता एकजुट होकरउसके लिए शासकदल को लगातार बाध्य करती होगी। जनता के बीच उत्कट असंतोष और दृढ़व्रती एकजुटता बनना इसकी पूर्व शर्त है। पर यह भी ध्यान रखने योग्य होगा कि ऐसा उत्कट असंतोष कहीं उन औजारों को ही नष्ट न कर डाले जिनके द्वारा उसे मिटाया जाना है। यह औजार हैं : सशक्त और स्पष्ट लक्ष्यों को लेकर चलने वाला शासन, मानसिक शांति के लिए अपेक्षया कम वेतन पर काम कर अपने पेशे के सेवाधर्मी उसूलों को पुष्ट करने के इच्छुक प्रशासक, शिक्षक, डॉक्टर, नर्स और परिचारक, और राजकीय अनुशासन को शिरोधार्य करने वाला समाज, जो कल के सर्वजनहिताय के लिए आज के स्वांत:सुखाय को स्थगित करने में ना-नुकुर न करें।