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मेकिंग के लिहाज से बेहतरीन है कमीने

कमीने सितारे : शाहिद कपूर, प्रियंका चोपड़ा, अमोल गुप्ते, तेंजिंग निमा, शिव सुब्रह्मण्यम, षिकेश जोशी, चंदन राय सान्याल निर्माता/बैनर: रॉनी स्क्रूवाला/यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्देशक, लेखक, संवाद और...

मेकिंग के लिहाज से बेहतरीन है कमीने
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 15 Aug 2009 04:00 PM
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कमीने
सितारे : शाहिद कपूर, प्रियंका चोपड़ा, अमोल गुप्ते, तेंजिंग निमा, शिव सुब्रह्मण्यम, षिकेश जोशी, चंदन राय सान्याल
निर्माता/बैनर: रॉनी स्क्रूवाला/यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्देशक, लेखक, संवाद और संगीत : विशाल भारद्वाज  

गीत :  गुलजारकहानी : गुड्डू और चार्ली (शाहिद कपूर) दोनों जुड़वां भाई हैं। चार्ली एक बैडमैन की तरह घोड़ों की रेस, जुए और नशे की दुनिया का हिस्सा है और गुड्डू एक एनजीओ में काम करनेवाला स्वीट सा लड़का है, जो प्यार करता है स्वीटी (प्रियंका चोपड़ा) से। चार्ली को घोड़े की रेस में एक लाख रुपये हारने की भरपाई फ्रांसिस से करानी है, जिसकी तलाश में मिखैल (चंदन राय सान्याल) और उसके दो बंगाली भाई भी हैं। चार्ली फ्रांसिस को होटल में खत्म तो कर देता है, लेकिन वह एक जंजाल में भी फंस जाता है, जिसके एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई है। चार्ली खाई को चुनता है और मुंबई पुलिस के नारकोटिक्स सेल की वैन से एक गिटार में रखी दस करोड़ की कोकीन चुरा लेता है। उधर, गुड्डू को पता चलता है कि स्वीटी गर्भवती है। स्वीटी गुड्डू पर शादी का दबाव बनाती है। स्वीटी भोपे (अमोल गुप्ते) की बहन है, जो कि गरीबों का मसीहा होने के साथ-साथ बुरे काम भी करता है। गुड्डू और स्वीटी की शादी की रात भोपे के आदमी स्वीटी को लेने आते हैं, लेकिन दोनों भाग जाते हैं। उधर, पुलिस को पता चल जाता है कि कोकीन चार्ली के पास है। दरअसल, यह कोकीन ड्रग माफिया किंग ताशी (तेंजिंग निमा) की होती है। इधर, पुलिस चार्ली के धोखे में गुड्डू को पकड़ लेती है और उधर, भोपे गुड्डू के चक्कर में चार्ली का गला पकड़ लेता है। असली मुसीबत बस यहीं से शुरू होती है।

निर्देशन : ‘ओमकारा’ के तीन साल बाद निर्देशक विशाल भारद्वाज ‘कमीने’ लेकर आये हैं। फिल्म के टाइटल से उन्होंने पहले ही काफी हाइप अजिर्त कर ली है, लेकिन फिल्म का गीत ‘ढैन टै ढैन’ और ट्रीटमेंट ही उनके निर्देशन की जान है। जो लोग हॉलीवुड फिल्मों में निर्देशक क्विटिन टॉरेंटिनों की फिल्म मेकिंग और स्टाइल से वाकिफ हैं, वो ही विशाल के इस स्टाइल को समझ सकते हैं। ‘पल्प फिक्शन’,  ‘डेस्परोडो’ और ‘सिन सिटी’ का स्टाइल इस फिल्म में दिखता है। फिल्म का ज्यादातर हिस्सा विशाल ने डार्क रखा है। लाल और नीले रंग की रोशनी में फिल्माए गीत, किरदारों से न के बराबर मेकअप में अभिनय कराना, बुरे धंधे में लिप्त बुरे लोगों की कमीनगी को दर्शानाआदि चीजें पहली बार बॉलीवुड में इस तरह से पेश की गयी हैं। अपनी फिल्म को विश्व स्तरीय क्राइम बेस्ड फिल्म बनाने के लिए विशाल ने तमाम नुस्खे अपनाए तो हैं, लेकिन वह कहीं न कहीं आम दर्शक के मनोरंजन की मांग को भूल गये, जो सिनेमा की बारीकियों को घर साथ नहीं ले जाता। हालांकि इसके लिए उन्होंने गालियों, सांकेतिक भद्देपन, हिंसा, कुछ अश्लील और द्विअर्थी संवादों का सहारा तो लिया है, लेकिन इसके लिए उन्हें ‘ए’ सर्टिफिकेट भी मिला है। मराठी मानुस मुद्दे को भी विशाल ने काफी सहजता से पेश किया है।

अभिनय : विशाल ने अपने कलाकारों से जमकर काम लिया है। खासतौर से शाहिद कपूर से। डबल रोल में शाहिद कपूर ने काफी मेहनत की है, यह स्क्रीन पर दिखाई देता है। उनका हकलाना और प को फ बोलना यानी ‘एफ इफेक्ट’ कारगर लगा। बैकग्राउंड में शाहिद की गूंजती आवाज ठोस लगती है। नॉन ग्लैमरस रूप में प्रियंका को अभिनय का काफी मौका मिला है। अमोल गुप्ते कलम चलाने के साथ-साथ अच्छी एक्टिंग भी करते हैं।    
गीत-संगीत :  यह साफ नहीं हो पाया है कि ‘ढैन टै ढैन’ रीयल में किसकी देन है, लेकिन विशाल की मानें तो यह सामूहिक प्रयास है, जिसे पुरानी फिल्मों में विलेन की एंट्री के समय संगीत के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। चूंकि इस फिल्म में तो ढेर सारे विलेन हैं तो ‘ढैन टै ढैन’ गीत और उसकी सिम्फनी जब कभी भी आती है तो अच्छी लगती है। गुलजार साहब की कलम ने इस बार ‘बीड़ी जलाइले’ और ‘नैना ठग लेंगे’ तथा ‘ओ साथी रे’ जैसे गीत तो नहीं उगले, लेकिन ‘रात के ढाई बजे’ गीत श्रोताओं को भा रहा है। एक संगीतकार के रूप में एक बार फिर विशाल भारद्वाज और गीतकार के रूप में गुलजार साहब की जोड़ी बढ़िया रही।

क्या है खास : फिल्म का तकनीकी पक्ष काफी मजबूत है। कलाकारों की एक्टिंग, दो किरदारों की कहानियों के साथ चलते फ्रेम को क्लाइमैक्स में साथ जोड़ना उत्सुकता पैदा करता है। फिल्म का अंत सोच से परे है। यह पता नहीं चलता कि कब कौन सा किरदार क्या करने वाला है।
क्या है बकवास : शाहिद का हकलाना अच्छा है, पर कई जगह झुंझलाहट भी पैदा करता है। ताशी के साथ नाइजीरियनों का तालमेल बेवजह ठूंसा गया लगता है।
पंचलाइन : मेकिंग के लिहाज से विशाल ने इंडस्ट्री को एक बेहतरीन फिल्म दी है और कहानी के माध्यम से यह जताया है कि भाई कितना भी कमीना क्यों न हो, आड़े वक्त काम आ ही जाता है।

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