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चली चली रे.. . पतंग....मेरी चली रे..

15 अगस्त यानी जश्न-ए-आजादी करीब आते ही दिल्ली की सड़कों के साथ-साथ आसमान के नजारे अचानक बदल जाते हैं। सारा आसमान पतंगों से पट जाता है, मानो आसमान के कैनवस पर रंग ही रंग बिखर गए हों। कोई कन्नी बांध...

चली चली रे.. . पतंग....मेरी चली रे..
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 14 Aug 2009 12:59 PM
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15 अगस्त यानी जश्न-ए-आजादी करीब आते ही दिल्ली की सड़कों के साथ-साथ आसमान के नजारे अचानक बदल जाते हैं। सारा आसमान पतंगों से पट जाता है, मानो आसमान के कैनवस पर रंग ही रंग बिखर गए हों। कोई कन्नी बांध रहा है तो कोई चरखी लपेट रहा है। कहीं पतंगों को लूटने के लिए गलियों में दौड़ लगाते बच्चे, तो कहीं छतों पर चिलचिलाती धूप में खड़े होकर पतंग उड़ाते बड़े व बूढ़े, यानी छत, छज्जों, मैदानों, हर तरफ पतंगबाजों का कब्जा। न जाने कितनी तरह के कागजी हवाई-जहाज आसमान में अपना जलवा बिखेरते नजर आते हैं। दिल्ली के साथ पतंग का यह रिश्ता बेहद पुराना है। जब लोग दिल्ली को ‘इंद्रप्रस्थ’ के नाम से जानते थे, तब भी पतंग के किस्से सुनने को मिलते थे।

पतंगबाजी का इतिहास
पतंग उड़ाने की रिवाज आज से लगभग 3000 साल पहले चीन में शुरू हुआ, लेकिन पतंगबाजी के खलीफा व उस्तादों का मानना है कि सबसे पहली पतंग हकीम जालीनूस ने बनाई थी। कुछ हकीम लुकमान का भी नाम लेते हैं। बहरहाल, कोरिया और जापान के रास्ते होती हुई पतंग भारत पहुंची। यहां इसका अपना एक अलग इतिहास है। मुगल दरबार में इसका ऐसा बोलबाला और खुमार था कि राजा-रजवाड़े, जागीरदार एवं वजीर भी पतंगबाजी में खुद हिस्सा लेते थे। मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर भी पतंगबाजी के आशिक थे।

मुगलिया दौर के बाद लखनऊ, रामपुर, हैदराबाद आदि शहरों के नवाबों में भी इसका खुमार चढ़ा। उन्होंने इसे एक बाजी की शक्ल दे दी। उन्होंने अपनी पतंगबाजी को गरीबी दूर करने का माध्यम बनाया। वो पतंगों में अशरफियां बांध कर उड़ाया करते थे और आखिर में पतंग की डोर तोड़ देते थे, ताकि गांव के लोग पतंग लूट सकें। वाजिद अली शाह तो पतंगबाजी के लिए हर साल अपनी पतंगबाज टोली के साथ पतंगबाजी के मुकाबले में दिल्ली आते थे। धीरे-धीरे नवाबों का यह शौक आम लोगों की जिंदगी का अहम हिस्सा बनता गया। 1927 में ‘गो बैक’ लिखी पतंगों को आसमान में उड़ा कर साइमन कमीशन का विरोध किया गया। आजादी की खुशी को जाहिर करने का माध्यम भी पतंग को बनाया गया।

साहित्य व फिल्मों में
कवियों व साहित्यकारों से लेकर फिल्म निर्देशकों तक ने इस पतंग पर अपनी कला का रंग चढ़ाया। पतंग पर अनेक कविताएं, गजल व गाने लिखे, जैसे-न कोई उमंग है, न कोई तरंग है, मेरी जिंदगी है क्या, एक कटी पतंग है।
तेरी-मेरी नजर की डोरी, लड़ी जो चोरी-चोरी..तो दिल की पतंग कट गई..... प्यार-मुहब्बत में भी पतंग का खूब इस्तेमाल किया गया। शायरों ने इसे बेवफा माशूक कहा। पतंग पर अनगिनत शेर हैं : कटी पतंग का रुख मेरे घर के जानिब था/ मगर इसे भी लूट लिया लंबे हाथ वालों ने।  बॉलीवुड के कई कलाकारों ने फिल्मों में अपनी पतंगबाजी दिखाई तो रियल लाइफ में हेमा मालिनी ने खूब पतंगबाजी की।

देश की रक्षा में पतंग
पतंगबाजी का इस्तेमाल युद्ध के मैदान में दुश्मन सेना के खिलाफ हमले के लिए प्रयोग में लाया जाता था। कोरियाई फौज के कमांडर ने सैकड़ों वर्ष पहले इसे विजय पताका के रूप में उड़ा कर अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाया था। कोरिया के ही एक फौजी सरदार ने पतंग उड़ा कर दरिया के पाट को नापा और उस पर पुल तैयार कराया। प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्घ में भी इसका प्रयोग किया गया। पतंग में बांध कर गुप्त संदेश भेजने, खबर पहुंचाने व झंडा उड़ाने जैसे कार्यो में इसका भरपूर इस्तेमाल किया गया।

महंगा शौक है यह
अब पतंगबाजी प्रोफेशनल हो गई है। दिल्ली व गुजरात में ही नहीं, देश के हर कोने में उड़ायी जाती है। आज यह महंगे खेलों में शुमार है और दिल्ली में ही लगभग 140 रजिस्टर्ड और लगभग 250 गैर-रजिस्टर्ड ‘पतंग क्लब’ हैं। ऐसे कई क्लब आगरा, बरेली, भोपाल, इलाहाबाद, बीकानेर, गुजरात, जम्मू के अलावा अन्य बड़े शहरों में भी हैं, जहां सदस्यों को मुकाबले के लिए तैयार किया जाता है। पतंगबाजी एक खेल है, एक आर्ट है, जिसको सीखना पड़ता है और अभ्यास करना पड़ता है। इसके अपने नियम व शर्ते होती हैं, जैसे 500 गज के ऊपर ही पेंच लड़ा सकते हैं। पतंगबाजी के टूर्नामेंट में हिस्सा लेने के लिए आपको 500-1500 रुपए खर्च करने पड़ सकते हैं।

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