महंगाई से थाली में घटी दाल की मात्रा
दालों की आसमान छूती कीमतों ने लोगों को दाल कम खाने पर मजबूर कर दिया है। उद्योग मंडल ऐसोचैम के एक अध्ययन में कहा गया कि 1960 के दशक में दाल की प्रति व्यक्ति खपत 27 किलोग्राम सालाना थी। यह जनवरी-जून...
दालों की आसमान छूती कीमतों ने लोगों को दाल कम खाने पर मजबूर कर दिया है। उद्योग मंडल ऐसोचैम के एक अध्ययन में कहा गया कि 1960 के दशक में दाल की प्रति व्यक्ति खपत 27 किलोग्राम सालाना थी। यह जनवरी-जून 2009 की अवधि में घटकर 11 किलो से भी कम हो गई है।
ऐसोचैम ने कहा कि दाल की बढ़ती कीमत ने आम परिवारों को दाल कम खाने पर मजूबर कर दिया है। इस साल की पहली छमाही में दाल की खपत घटकर 11 किलो प्रति व्यक्ति से भी कम हो गई है।
अध्ययन में कहा गया कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन में दाल के उत्पादन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
ऐसोचैम ने कहा कि इसका नतीजा है कि दाल का उत्पादन गिर गया और अब कीमतों में बढ़ोतरी के कारण दाल आम आदमी की थाली से लगभग गायब हो गई है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन 2008 में 5000 करोड़ रुपये के शुरुआती कोष के साथ शुरू किया गया था ताकि 2011-12तक गेहूं के उत्पादन में 80 लाख टन, चावल में एक करोड़ टन और दाल के उत्पादन में 20 लाख टन की बढ़ोतरी की जा सके।
ऐसोचैम ने कहा कि 1967 में हरित क्रांति शुरू होने से लेकर अब तक दाल का उत्पादन सबसे कम सिर्फ 1.14 फीसदीबढ़ा है। उद्योग मंडल के महासचिव डी एस रावत ने कहा कि इधर गेहूं, चावल, तिलहन और मक्के के उत्पादन में क्रमश: 2.8 फीसदी, 2.3 फीसदी, 1.88 फीसदी और 1.7 फीसीद सीएजीआर की वृद्धि दर्ज हुई थी। क्षेत्रफल के विस्तार के अभाव और उत्पादन में बहुत कम बढ़ोतरी के कारण दालों का उत्पादन पिछले पांच दशकों में सिर्फ 0.8 फीसदी बढ़ा है।
ऐसोचैम ने कहा कि देश की दाल की मांग में बढ़ोतरी के कारण आयात में बढ़ोतरी हुई। विडंबना ही है कि कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे देश अपनी उत्पादन योजना में भारत की मांग को ध्यान में रखते हैं तथा वे भारत की स्थिति का फायदा उठाने में कामयाब रहे हैं।