फोटो गैलरी

Hindi Newsगायकी के बादशाह थे रफी साहब

गायकी के बादशाह थे रफी साहब

हिन्दी फिल्म संगीत जगत में वैसे तो अनेक गायकों का बोलबाला रहा। जिनका मुरीद जमाना है लेकिन अपनी रेंज, हर कलाकार पर फिट बैठने वाली भावपूर्ण खुली लोचदार आवाज, अभिनेता की शैली के अनुरूप गायकी को ढाल...

गायकी के बादशाह थे रफी साहब
एजेंसीFri, 31 Jul 2009 12:14 PM
ऐप पर पढ़ें

हिन्दी फिल्म संगीत जगत में वैसे तो अनेक गायकों का बोलबाला रहा। जिनका मुरीद जमाना है लेकिन अपनी रेंज, हर कलाकार पर फिट बैठने वाली भावपूर्ण खुली लोचदार आवाज, अभिनेता की शैली के अनुरूप गायकी को ढाल लेने, उसमें अभिनय को समाहित करने, सुर को बड़ी सहजता के साथ आसमान की ऊंचाई और अतल गहराई तक ले जाने और मध्यम सुर में भी उसी खूबी से गायन की क्षमता से मोहम्मद रफी ने जो मुकाम हासिल किया था। दूसरे गायक आज तक उसके आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं।

मोहम्मद रफी को गायन की प्रेरणा एक फकीर से मिली और उनकी इस प्रतिभा को पहचानकर उनके रिश्ते के एक बड़े भाई मोहम्मद हामिद ने उन्हें संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया। रफी ने उनकी प्रेरणा से पहले हिन्दुस्तानी शैली के प्रसिद्ध गायक छोटे गुलाम खान और फिर शास्त्रीय गायक उस्ताद वाहिद खान से संगीत की तालीम ली।

रफी उस दौर के मशहूर गायक कुंदनलाल सहगल के दीवाने थे। संयोग से उन्हें पहली बार मंच पर गाने का मौका सहगल के ही कार्यक्रम में मिला। किस्सा कुछ इस तरह है कि लाहौर में सहगल के गायन को सुनने के लिए तेरह साल के रफी अपने भाई हामिद के साथ उस कार्यक्रम में गए थे। सहगल गाना शुरु करने वाले ही थे कि अचानक बिजली चली गई और उन्होंने गाने से मना कर दिया। ऐसी स्थिति में हामिद ने कार्यक्रम के संचालक से अनुरोध किया कि दर्शकों को शांत रखने के लिए उनके भाई को गाने का मौका दिया जाए। रफी के गाना शुरु करते ही दर्शक शांत हो गए। उसी कार्यक्रम में संगीतकार श्याम सुंदर भी मौजूद थे जिन्होंने रफी की आवाज से प्रभावित होकर उन्हें मुंबई (तत्कालीन बंबई) आने का न्योता दिया।

रफी ने श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन में पहली बार 1942 में पंजाबी फिल्म, गुल बलोच, के लिए गायिका जीनत बेगम के साथ युगल गीत 'सोनिए नी हीरीए नी' गाया। रफी की आवाज से श्याम सुंदर इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी फिल्म, बाजार में उनसे सात गाने गवाए। इसी दौरान लाहौर रेडियो स्टेशन का निदेशक बनने पर संगीतकार फीरोज निजामी ने उन्हें रेडियो पर गाने का मौका दिया और फिर 1947 में प्रदर्शित अपनी फिल्म, जुगनू,में उनसे एक सहगान, वो अपनी याद दिलाने को रूमाल पुराना छोड़ गए। वे जब यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है, गीत में नूरजहां के साथ गाने का मौका देने से हिचक रहे थे पर जब नूरजहां ने रफी से ही यह गीत गवाने पर जोर दिया तो वह मान गए। यह गीत उस दौर में बेहद मकबूल हुआ और आज भी यह सदाबहार गीतों में शुमार किया जाता है।

इस गीत की कामयाबी के बाद मोहम्मद रफी की गायन क्षमता पर किसी तरह का शुब्हा नहीं रहा। इसी दौरान 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने राजेन्द्र कृष्ण का लिखा एक लंबा गीत, सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की अमर कहानी, गाकर देशवासियों को भावविह्वल कर दिया।

रफी को इन गीतों से लोकप्रियता तो मिली लेकिन उन्हें नियमित तौर पर काम नहीं मिल रहा था। हामिद के प्रयासों से वह नौशाद के पिता का सिफारिशीखत लेकर उनसे मिले और नौशाद ने उन्हें पहली बार अपने संगीत निर्देशन में 'पहले आप' फिल्म में गाने का मौका दिया। इस फिल्म में उन्होंने एक सहगान में गायन किया,जिसके बोल थे 'हिन्दोस्तां के हम हैं, हिन्दोस्तां हमारा है'। 'दुलारी' फिल्म में नौशाद ने उन्हें फिर मौका दिया और इस फिल्म के गीत'सुहानी रात ढल चुकी' से वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। नौशाद और गीतकार शकील बंदायूनी के साथ शुरु हुआ उनका संगीत का यह सफर काफी लंबा चला और इस तिकड़ी ने एक से बढ़कर एक लाजवाब गीतों के खजाने से फिल्म संगीत को समृद्ध बनाने में अमूल्य योगदान किया।

रफी की एक तमन्ना सहगल के साथ गीत गाने की थी, जिसे नौशाद ने ही फिल्म 'शाहजहां' पूरा किया। इस फिल्म के एक गीत 'रूही रूही मेरे सपनों की रानी' में उन्होंने मुख्य गायक सहगल के साथी गायकों के बीच में अपना स्वर दिया था। दिलचस्प बात यह है कि इस गाने में अपनी गाई पंक्ति पर अभिनय भी उन्होंने ही किया था।

'बैजू बावरा' रफी के कैरियर में कीर्तिस्तम्भ मानी जाएगी। इस फिल्म में नौशाद के संगीत निर्देशन में रफी की गायकी का चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है। वास्तव में यही वह फिल्म थी जिससे रफी ने साबित किया कि वह हर तरह के गीत गाने की क्षमता रखते हैं। इस फिल्म का हर गीत अविस्मरणीय है 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज', 'झूले में पवन के आई बहार', 'इंसान बनो कर लो भलाई का कोई काम', 'तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा', 'ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले' केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूले।
 
बैजू बावरा की जबरदस्त कामयाबी के बाद रफी हर संगीतकार की पहली पसंद बन गए। हुस्नलाल, भगतराम, रोशन, सी रामचंद्र, खय्याम, हंसराज बहल, एन दत्ता, जयदेव, चित्रगुप्त, वसंत देसाई, हेमन्त कुमार, ओपी नैयर, गुलाम मोहम्मद, सज्जाद हुसैन, सलिल चौधरी, एस मोहिन्दर, एसएन त्रिपाठी, सपन जगमोहन, कल्याण जी, आनन्द जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, रवि, इकबाल कुरैशी, रामलाल, एस.डी. बर्मन, आरडी बर्मन, उषा खन्ना, राजेश रोशन, रवीन्द्र जैन आदि अनगिनत संगीतकारों के लिए उन्होंने हजारों सुमधुर गीत गाए। मदन मोहन, ओपी नैयर, रवि और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल तो उनके बगैर गायन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। ओपी नैयर ने तो यहां तक कह दिया था कि यदि रफी नहीं होते तो ओपी नैयर भी नहीं होता।
 
हिन्दी संगीत के स्वर्णयुग में रफी का वर्चस्व इस हद तक था कि ओपी नैयर ने गायक अभिनेता किशोर कुमार के लिए 1957 में रागिनी और शंकर जयकिशन ने 1959 में शरारत फिल्म में रफी से गीत गवाए। 'बागी शाहजादा' फिल्म में भी परदे पर नायक की भूमिका में किशोर कुमार के लिए उन्होंने गीत गाया।
  रफी की आवाज की खासियत यह थी कि वह अभिनेता की शैली के अनुरूप अपने गायन को ढाल लेते थे और उसमें अभिनय का भी समावेश कर देते थे जिससे कलाकार का काम बेहद आसान हो जाता था। दिलीप कुमार के लिए गाते हुए वह दिलीप कुमार ही बन जाते थे और देवानन्द के लिए गाते हुए उसी तरह रोमानी हो जाते थे।

 रफी उछल कूद भरे और तेज गति के गीत उसी सहजता से गा लेते थे जिस आसानी के साथ रोमांटिक.हास्य.भक्ति और देशभक्ति के गीत तथा भजन.गजल और कव्वालियों का गायन कर लेते थे। संगीतकार मदन मोहन के लिए उन्होंने हीर रांझ और दस्तक फिल्मों में मध्यम सुर में कुछ बडे ही रोमांटिक गाने गाए। स्वरों के उतार.चढाव पर उनका गजब का नियंत्रण था। यह बात उनके .ओ दुनिया के रखवाले .मधुबन में राधिका नाचे जैसे शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों में देखी जा सकती है।

 रफी किसी भी स्थापित और नए अभिनेता के लिए गायन कर सकते थे। मुकेश राजकपूर और हेमन्त कुमार तथा किशोर कुमार देवानन्द की आवाज माने जाते थे लेकिन रफी के साथ इस तरह की कोई बात नहीं थी। वह दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानन्द, भारत भूषण,  प्रदीप कुमार, शम्मी कपूर जैसे स्थापित कलाकारों और कबीर बेदी, विजय अरोडा, परीक्षित साहनी और अनिल धवन जैसे अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध अभिनेताओं के लिए भी समान सहजता के साथ गायन कर लेते थे।

 उपलब्ध आंकडों के अनुसार रफी ने 1945 से 1980 के बीच 4516 हिन्दी फिल्मी गीत. 112 गैर हिन्दी फिल्मी गीत और 328 निजी. गैर फिल्मी. गीत गाए। हालांकि गिनीज बुक ने उनके नाम पर 1940 से 1980 के बीच चार दशक में लगभग 26000 गीत दर्ज किए थे लेकिन बाद में उसने उनका नाम हटा दिया था। रफी ने सर्वाधिक युगल गीत लता मंगेशकर के साथ गाए लेकिन आशा भोंसले. गीता दत्त और सुमन कल्याण पुर के साथ भी उन्होंने अनेक युगल गीतों में अपना स्वर दिया। हिन्दी के अलावा उन्होंने उर्दू, पंजाबी, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड आदि भाषाओं में भी गायन किया।

 ऊंचे से ऊंचे सुर में गाने की क्षमता रखने वाला संगीत का यह एकनिष्ठ साधक निजी जिन्दगी में बेहद कम बोलने वाला. विनम्र. शांत. संतोषी और विवादों से दूर रहने वाला व्यक्ति था। उनकी जिन्दगी में सिर्फ एक बार ऐसा मौका आया था जब वह विवादों में पड़ने से खुद को नहीं बचा पाए थे। गायकों को रायल्टी के मुद्दे पर उनकी सुप्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर के साथ तकरार हो गई थी. जिसकी वजह से दोनों के बीच लगभग चार साल तक बातचीत बंद रही। बाद में अभिनेत्री नर्गिस के समझने.बुझने से दोनों ने एक कार्यक्रम में शिरकत करते हुए 'ज्वेल थीफ' का गाना, दिल पुकारे 'आ रे आरे आरे' गीत गाकर संबंधों पर जमी बर्फ को तोडा था।

रफी के एकछत्र साम्राज्य में वह समय भी आया. जब कुछ समय के लिए उनका सितारा गर्दिश में चला गया। आराधना में किशोर कुमार के गायक और राजेश खन्ना के नायक के रूप में धूमकेतु की तरह उभरने पर वह हाशिए पर धकेल दिए गए लेकिन जल्दी ही उन्होंने .हम किसी से कम नहीं. के गीत. क्या हुआ तेरा वादा. से वापसी कर ली और बदले हुए ट्रेंड के मुताबिक को खुद को ढालते हुए आखिरी समय तक गायन करते रहे।

 चार दशक से भी लंबे गायन के कैरियर में रफी के उत्कृष्ट योगदान को देखते हुए उन्हें 1965 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें गीतों के लिए छह बार सर्वÞोष्ठ पाश्र्व गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। चौदहवीं का चांद में चौदहवीं का चांद हो. ससुराल में तेरी प्यारी प्यारी सूरत को. दोस्ती में चाहूंगा मैं तुङो सांझ सबेरे, सूरज में बहारों फूल बरसाओ, बह्मचारी में दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर और हम किसी से कम नहीं में क्या हुआ तेरा वादा के लिए उन्हें ए पुरस्कार हासिल हुए। क्या हुआ तेरा वादा के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किया गया।

 हालांकि रफी के करोडों प्रशंसको को इस बात की गिला है कि अपनी आवाज की जादूगरी से दुनिया का दिल जीतने वाले निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ इस गायक को भारत रत्न के काबिल क्यों नहीं समझा गया। रफी ने अपना अंतिम गीत संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारे लाल के निर्देशन में 26 जुलाई 1980 को फिल्म आसपास के लिए गाया और 31 जुलाई को दिल का दौरा पडने से उनका निधन हो गया। यह गीत रिकार्ड होने के बाद उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल से कहा था 'मैं चलूं' दोनों संगीतकार यह सुनकर आश्चर्य में पड गए और कोई जवाब नहीं दे सके क्योंकि रफी ने ऐसा पहले कभी नहीं कहा था। जाने से पहले उन्होंने एक बार और कहा, तो मैं चलता हूं। उसी दिन शाम को साढे सात बजे दिल का दौरा पडने से उनका इंतकाल हो गया।

मोहम्मद रफी को गायन की प्रेरणा एक फकीर से मिली और उनकी इस प्रतिभा को पहचानकर उनके रिश्ते के एक बडे भाई मोहम्मद हामिद ने उन्हें संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया। रफी ने उनकी प्रेरणा से पहले हिन्दुस्तानी शैली के प्रसिद्ध गायक छोटे गुलाम खान और फिर शास्त्रीय गायक उस्ताद वाहिद खान से संगीत की तालीम ली। रफी उस दौर के मशहूर गायक कुंदनलाल सहगल के दीवाने थे। संयोग से उन्हें पहली बार मंच पर गाने का मौका सहगल के ही कार्यक्रम में मिला। किस्सा कुछ इस तरह है कि लाहौर में सहगल के गायन को सुनने के लिए तेरह साल के रफी अपने भाई हामिद के साथ उस कार्यक्रम में गए थे। सहगल गाना शुरु करने वाले ही थे कि अचानक बिजली चली गई और उन्होंने गाने से मना कर दिया। ऐसी स्थिति में हामिद ने कार्यक्रम के संचालक से अनुरोध किया कि दर्शकों को शांत रखने के लिए उनके भाई को गाने का मौका दिया जाए। रफी के गाना शुरु करते ही दर्शक शांत हो गए। उसी कार्यक्रम में संगीतकार श्याम सुंदर भी मौजूद थे .जिन्होंने रफी की आवाज से प्रभावित होकर उन्हें मुम्बई आने का न्योता दिया।

 रफी ने श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन में पहली बार 1942 में पंजाबी फिल्म 'गुल बलोल' के लिए गायिका जीनत बेगम के साथ युगल गीत.सोनिए नी हीरीए नी.गाया। रफी की आवाज से श्याम सुंदर इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी फिल्म 'बाजार' में उनसे सात गाने गवाए। इसी दौरान लाहौर रेडियो स्टेशन का निदेशक बनने पर संगीतकार फीरोज निजामी ने उन्हें रेडियो पर गाने का मौका दिया और फिर 1947 में प्रदर्शित अपनी फिल्म 'जुगनू' में उनसे एक सहगान 'वो अपनी याद दिलाने को रूमाल पुराना छोड गए' में गवाया लेकिन वह उन्हें .यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है, गीत में नूरजहां के साथ गाने का मौका देने से हिचक रहे थे पर जब नूरजहां ने रफी से ही यह गीत गवाने पर जोर दिया तो वह मान गए। यह गीत उस दौर में बेहद मकबूल हुआ और आज भी यह सदाबहार गीतों में शुमार किया जाता है।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें