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पगड़ी संभाल इंडिया, आई हिलरी क्लिंटन

पिछले आठ सालों से भारत और अमेरिका के बीच का शिथिल दुश्मनी का रिश्ता धीमे-धीमे पहले मैत्री और फिर हिचकतेसहयोग-समर्थन में तब्दील होता गया है। इसके असर से दुनिया के कई देशों को लेकर अमेरिका और भारत की...

पगड़ी संभाल इंडिया, आई हिलरी क्लिंटन
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 18 Jul 2009 10:08 PM
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पिछले आठ सालों से भारत और अमेरिका के बीच का शिथिल दुश्मनी का रिश्ता धीमे-धीमे पहले मैत्री और फिर हिचकतेसहयोग-समर्थन में तब्दील होता गया है। इसके असर से दुनिया के कई देशों को लेकर अमेरिका और भारत की नीतियों की परस्पर विमुख पटरिया समांतर भी हुई हैं। अलबत्ता भारत और अमेरिका की मैत्री से चिन्तित पाकिस्तान ने आतंकवाद विरोध के मुद्दे पर कुछ ऐसी पहलें की हैं, जिनके पुण्यप्रताप से भारत-अमेरिकी रिश्तों में एक बार फिर चिंताजनक रूप से ठण्डापन घर कर सकता है। अमेरिकी विदेश सचिव हिलरी क्लिंटन की इस बार भारत तक सीमित पांच दिवसीय यात्रा की खबर आते ही मुंबई आतंकी हमले के प्रमुख आरोपी पर कठोर कार्रवाई को लेकर उसका सुर बदल गया। फिर इस आशय के बयान आने लगे कि बलूच इलाके से सटे क्षेत्र में भारत की उपस्थिति ने आतंकियों का हौसला बढ़ा रखा है। ऐसी नाजुक घड़ी में भारत पर नए सिरे से पाकिस्तान के साथ प्रेममय रिश्ते बनाने तथा परमाणु हथियारों को त्यागने के लिए तमाम छिपे और खुले अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ने लगे हैं। यानी भाई लोग चाहते हैं कि इलाके में जो शांति हो, वह भारत की मर्जी और सुविधा की बजाए उन आधारों पर हो, जो भारत की स्थिति दुविधाभरी कमजोरी की बनाए रखे।

परउपदेशकुशल अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के दबावों की यह चिन्ता अकारण नहीं है। इराकी ततैयों से पीछा छुड़ाने को अमेरिका की नईडेमोक्रैट सरकार में सभी बुश-कालीन रिपब्लिकन नीतियों को बाहर फेंक या पलट देने की भी आतुरता है। इसके दायरे में अमेरिका कंपनियों द्वारा कामों की भारत को आउटसोर्सिग से लेकर भारत-अमेरिकी परमाणु करार तक कई मुद्दे शामिल कर लिए गए हैं। हाल के जी-8 सम्मेलन में भी यूरोप तथा अमेरिका ने भारत की तारीफ करने के बावजूद पर्यावरण सुरक्षा तथा कार्बन-उत्सजर्न खतरे को लेकर स्वच्छ तकनीकी खरीदने के लिए जो प्रस्ताव पारित कराए, उनसे भी भारत की अर्थव्यवस्था के दुष्प्रभावित होने की संभावना बनती है। ब्रिटिश समाचार पत्र ‘गॉजिर्यन’ का आकलन है, कि अपने उद्योगों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय न्याय को ताक पर रखकरअमीर देशों ने अपने यहा कार्बन उत्सजर्न को घटाने की बाबत खुद अपनी जिम्मेदारी बड़ी चतुराई से 50 प्रतिशत घटा कर जिम्मेदारी का बड़ा हिस्सा चीन और भारत जसे विकासशील देशों पर लाद दिया है। शर्म-अल-शेख में मनमोहन सिंह तथा गिलानी की संयुक्तवार्ता में से निकले साझा बयान से (आतंकवाद की लड़ाई के प्रसंग में)26/11 के गुनाहगारों की पकड़-धकड़ की कड़ी शर्तो का गायब होना तथा पाक प्रधानमंत्री गिलानी का मुंबई कांड के बरक्स बलूचिस्तान के आतंकी हमलों का हवाला गौरतलब है। आतंक परकार्रवाई का मुद्दा यदि समग्र वार्ता से बाहर रहेगा और उल्टे भारत पर बलूचिस्तान के बहाने पाक विरोधी आतंक को शह का कलंक लगेगा तो तय है कि पाक यह मुद्दा दूर तक भुनवाएगा। घर वापस लौटे गिलानी के बयान इसकी तसदीक भी कर रहे हैं। इसके बाद गलबहिया डाल कर भारत-पाक नेतृत्व आतंकवाद विरोध की कितनी ही गंगा-जमुना कव्वालिया गाए-बजए तो उससे क्या?
चिंता की सबसे बड़ी वजह है कि भारत अमेरिका के बहुचर्चित गैर-सामरिक परमाणु-सहयोग समझोते के संदर्भ में यू तो ओबामा प्रशासन ने भारत को एकाधिक बार आश्वासन दिया है कि वह गैर-सामरिक परमाणु सहयोग पर भारत के साथ हुई बुश-कालीनसंधि को आगे बढ़ाएगा, लेकिन मोहतरमा हिलरी ने अपनी यात्रा की ऐन पूर्व संध्या पर हठात् यह जोड़ कर पर्यवेक्षकों की कनौतिया खड़ी कर दी हैं कि वे इस बार परमाणु नि:शस्त्रीकरण मुद्दे पर भी भारतीय नेतृत्व से एक बारगी से व्यापक कूटनीतिक चर्चा (मोस्ट वाइड रेंजिंग टॉक्स) करने की इच्छुक हैं, ताकि दुनिया में व्यापक विनाश के हथियारों के उत्पादन और इस्तेमाल पर रोक लगवाने की व्यवस्था बन सके।

भारत और पाकिस्तान के नेताओं तथा अवाम को बराक ओबामा की पैदाइश के भी पहले से मालूम है कि दोनों देश शाश्वत दुश्मनी की तनाव भरी स्थिति में नहीं रह सकते। और शायद ही कोई जिम्मेदार भारतीय राजनेता सोचता हो कि परमाणु हथियारों के प्रयोग से पाकिस्तान को नष्ट किया जा सकता है। लेकिन आज भी अमेरिकी राजनय के हलकों में भारतीय लोकतंत्र को लेकर कही जा रही तमाम मधुर बातों के बावजूद यह मान्यता बड़ी आम है कि अशांत कश्मीर ही इस उपमहाद्वीप में इस्लामी आतंकवाद का स्रोत है। और आतंकवाद को हटाने के लिए कश्मीरियों की इच्छा से उस मसले को जल्द से जल्द हल करना हर भारत-पाक वार्ता का सबसे पहला तथा प्रमुख मुद्दा होना चाहिए। भारत के लिए ऐसे वक्त में अपनी पगड़ी सभालते हुए पहले ओबामा सरकार की दीर्घकालीन कूटनीतिक नीयत को ठोक बजकर परखने का है। इसमें शक नहीं कि भारत और अमेरिका के रिश्तों में आई गर्माहट पिछले दशक की बेहद महत्वपूर्ण घटना है। पर इस उपमहाद्वीप के संदर्भ में उसकी कई पंखुड़िया अभी समय के साथ खुलेंगी। इस दम क्लिंटन दम्पति की पुरानी यात्रा की भावुक-मीठी स्मृतिया चुभलाते हुए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट हिलरी के आगे समय से पूर्व समर्पण भाव से अपने तमाम पन्ने खोलना भारतीय राजनय के लिए एक घातक मूर्खता हो सकती है। अमेरिकी प्रशासन का यह स्नेहभाव पाकिस्तान के हित की चिन्ता से भी नहीं, बल्कि खुद उसके अपने महत्वपूर्ण भू-राजनैतिक अंतरराष्ट्रीय हितों से जुड़ा है। भारत के लिए भी हिलरी के साथ वार्ता करते वक्त ध्यान में रखने की बात यह है कि इस वक्त खुद उसके अपने हित क्या हैं और वह किस हद तक बिना उन्हें चोट पहुचाए अमेरिकी हितों के साधन में सहयोग दे सकता है। और सहयोग की न्यूनतम कीमत क्या होनी चाहिए? यह मुहावरा भी तो अमेरिकी ही है कि फ्री लंच नाम की कोई चीज नहीं होती।

स्पष्ट है कि अमेरिका भी ऐसी स्थिति कतई नहीं चाहता, जिसमें अशांत मध्य-एशिया के प्रेतों की शांति के बजाए भारत और पाकिस्तान में एक युद्ध छिड़ जए। अत: अब उसे यह स्पष्ट तौर से बता दिया जाना चाहिए कि उद्दाम सैन्यवाद, अंधे भारत विरोध और अफ्रीका से मलेशिया और हिन्द-चीन तक अमेरिका विरोधी आतंकी जत्थों की शतरंजबाजी का ग्रैण्डमास्टर बन कर खड़ा पाकिस्तान अमेरिका के लिए भी खतरा है। जब तक अमेरिका भारत के विरुद्ध पाक के घातक छायायुद्ध का भरोसेमंद तौर से परिमाजर्न नहीं करता, एशिया में अमेरिकी हितों की पहरेदारी में भारत भी कोई गहन रुचि नहीं ले सकता। तरल सत्ता संतुलन के इस जमाने में जब आर्थिक रीढ़ लचकने से जी-8 देश खुद को दीन अपने संसाधन अपर्याप्त पा कर जी-14 बनाने की सोच रहे हैं, भारत के कूटनीतिक हितों की वाजिब कद्र की जानी चाहिए, वर्ना उसके साथ घनिष्ठ मैत्री और सहकार की राह कठिन होगी।


कूटनीतिक माधुर्य की दृष्टि से हिलरी अपनी इस यात्रा के दौरान मुंबई तथा दिल्ली में अनेक भारतीय उद्यमियों के साथ समाजसेवी संगठनों, कलाकारों और सामान्य जनों के सहकारिता समूहों से भी भेंट करेंगी। यही नहीं, वे मुंबई के उसी ताज होटल में ठहरेंगी, जो 26/11 के आतंकी हमलों का शिकार हुआ था। माना जा रहा है कि यह भारत-अमेरिका की आतंकवाद से जुड़ी साझा चिन्ताओं को लेकर अमेरिकी सरकार द्वारा मैत्रीपूर्ण सहकारिता के पक्ष में उठाया गया प्रतीकात्मक कदम है। लेकिन इससे पहले कि हमारा नेतृत्व ताज के क्रिस्टल रूम में टी.वी. कैमरों के आगे ‘इंडिया लव्स ओबामा’ जैसा कोई वाक्य भारत की एक अरब आबादी की ओर से पेश करे या मीडिया के पाठक/दर्शकों को ग्रामीण साथिनों या पंचायत सदस्यों के हाथों में हाथ डाले नाचती क्लिंटन दम्पति की पुरानी रंगारंग छविया दिखाई जवें, हमें व्यावहारिक धरातल पर सोचना होगा। जो चीनी मुह के सम्पर्क में आकर बड़ी मीठी प्रतीत होती है, ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की भाषा में वह अंतत: सिर्फ एक फॉमरूला है। ताज-प्रवास में अमेरिका को भले ही चीनी की मिठास दिखाई   देती हो, जी-8 से निकले संकेतों से सतर्क भारत के सोचने-विचारने में (अभी भी) समर्थ नागरिकों को उसकी नयनाभिराम छवियॉं बहुत करके जन-सम्पर्क कवायद का एक फॉमरूला ही प्रतीत हो रही हैं।

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