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कार नहीं है भविष्य का वाहन

दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनों अब जल्द ही सड़कों पर दिखने वाली है। इसे बनाने वाली कंपनी टाटा मोटर्स का कहना है कि यह कार भारत में ड्राइविंग की तस्वीर बदलकर रख देगी। अब उन लोगों के लिए भी अपनी कार...

कार नहीं है भविष्य का वाहन
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 03 Jun 2009 09:27 PM
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दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनों अब जल्द ही सड़कों पर दिखने वाली है। इसे बनाने वाली कंपनी टाटा मोटर्स का कहना है कि यह कार भारत में ड्राइविंग की तस्वीर बदलकर रख देगी। अब उन लोगों के लिए भी अपनी कार खरीदना मुमकिन होगा, जिनके लिए पहले यह एक सपना भर था। निश्चित रूप में नैनों को लोगों की एक हसरत के रूप में ही पेश किया ज रहा है- अपनी कार खरीदने के हर भारतीय के अधिकार के तौर पर। निसंदेह महंगी कार के मुकाबले एक ऐसी कार कहीं बेहतर है जो आपनी हैसियत के भीतर हो। या इसी तरह ईंधन की कम खपत वाली छोटी कार, दूसरी बड़ी कार के मुकाबले बहुत बेहतर है। और हर भारतीय के पास कार खरीदने का वसा ही अधिकार है, जैसा अमेरिका के लोगों के पास। अमेरिका में कारों की संख्या शर्मनाक ढंग से ज्यादा है। वहां कार चलाने की उम्र वाली हर एक हजर की आबादी पर 800 कारें हैं। जबकि अपने यहां इतनी आबादी पर महज सात कार हैं।

अब मैं अपनी चिंताओं की बात करती हूं। मुद्दा नैनों  नहीं है। मुद्दा सारी कारे हैं। मुद्दा यह है कि क्या कारें विश्व अर्थव्यवस्था का भविष्य हैं? पिछले काफी समय से दुनिया भर के महाद्वीपों में कार निर्माता इन कारों के नित नए रूप पेश कर रहे हैं। बाजर के हर वर्ग के लिए अलग-अलग।

लेकिन नैनों का लांच उस समय किया ज रहा है, जब निजी वाहन पुरानी अर्थव्यवस्था की चीज माने जने लगे हैं। इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि कार उद्योग इस सदी का पहला बड़ा डॉयनासोर साबित होने जा रहा है। हर देश इस समय अपने कार उद्योग के आर्थिक उद्धार में जुटा हुआ है। चार बड़ी कंपनियां तो लगभग बंद होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। दुनिया भर की कार उत्पादन क्षमता मांग से कहीं ज्यादा है, बिक्री सुस्त है और उद्योग घाटे में डूबा हुआ है। आपको यह लग सकता है कि यह तो बस थोड़े समय की बात है, मंदी विदा होगी तो कारें फिर रफ्तार पकड़ लेंगी। लेकिन सच यह नहीं है।

सच यही है कि कारें पुरानी अर्थव्यवस्था में ही बड़ी चीज थीं। तब उन पर भारी सब्सिडी थी, या उनके लिए बैंकों के सस्ते कर्ज जसे प्रोत्साहन जुड़े थे। अगर किसी की कर्ज चुकाने की हैसियत नहीं भी है तो भी बैंक यह कोशिश करते थे कि किसी भी तरह से कर्ज चलता रहे भले ही इस चक्कर में बैंक की रीढ़ ही टूट जाए। लेकिन यह अतीत की बात है। भविष्य इससे काफी अलग होगा। हो सकता है कि बैंक अपने घाटे की भरपाई कर लें और आपको सस्ता कर्ज भी मिलने लगे, लेकिन आपके सपनों की कार को चलाने की लागत कम नहीं होगी। पेट्रोलियम विशेषज्ञों का कहना है कि अगर अर्थव्यवस्था फिर से उठ खड़ी होगी तो इस काले सोने के दाम भी फिर से आसमान छूने लगेंगे।

और फिर इसमें दुनिया की सबसे बड़ी सबसिडी भी जुड़ जाती है। दुनिया भर के निजी वाहनों की मुक्त आवाजही से सबसे बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैस पर्यावरण को दूषित करने निकल पड़ती हैं। इसे अगर अच्छे पर्यावरण के आम लोगों के अधिकार के लिहाज से देखें तो अमीरों की कारों से निकलने वाली कार्बन डॉईआक्सइड की मात्रा सीमित करनी होगी और उस पर टैक्स भी लगना चाहिए। ऐसा हुआ तो ड्राइविंग और महंगी हो जएगी।

दुनिया भर के ऑटोमोबाइल उद्योग को पता है कि यह उनका भविष्य नहीं है, यह उनका अतीत है। बदकिस्मती से यह संदेश अभी हमारे यहां नहीं पहुंचा है। पश्चिम में कार का बाजर अपने चरम पर पहुंच गया है, जबकि हमारे यहां अभी भी ऐसे लोगों की तादाद काफी बड़ी है, जो कार खरीदना चाहते हैं, या कार खरीद सकते हैं। लेकिन भारत में कीमतों का मामला ऐसा है कि कार तभी किसी की हैसियत में आती है, जब उस पर भारी सबसिडी होती है।

मसलन नैनों का उदाहरण ही लीजिए। मेरे सहयोगी चंद्र भूषण ने गणना की है कि नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार ने नैनों पर जो रियायते दी है, वह एक लाख रुपये की कार पर 50 से 60 हजर रुपये प्रति कार पड़ती हैं। दूसरे शब्दों में इसकी कीमत इसीलिए कम है, क्योंकि सरकार ने अपना खजना खोल दिया है। अतीत और वर्तमान के सभी वाहनों को इसका फायदा मिला है। हम कार को इसीलिए खरीद पाते हैं, क्योंकि हमारी सरकार इसके लिए भुगतान करती है। हम इसे इसीलिए चला पाते हैं, क्योंकि हमसे इसे चलाने की कीमत नही वसूली जती। इस समाजवादी देश में कारों पर लगने वाला कर बसों के मुकाबले काफी कम है। हम पार्किग के लिए पैसा नहीं देते। यह सारी लागत अगर इसमें जोड़ दी जएं तो हमें कार खरीदने से पहले हजर  बार सोचना होगा, फिर वह कार चाहे किसी भी मॉडल या ब्रांड की क्यों न हो।

हम कार पर सबसिडी देते हैं और बस पर टैक्स लगाते हैं। बसों पर व्यवसायिक वाहनों वाला कर लगता है, जो उन्हें हर साल यात्री क्षमता के हिसाब से देना होता है। कई राज्यों में तो यह कारों के मुकाबले 12 गुना तक होता है। आपकी शहर की बसों की आधी कमाई तो इन्हीं टैक्सों में ही चली जती है। और रिकार्ड समय में नैनों को बाजर में लाने वाली टाटा कंपनी के पास शहर की जरूरत के लिए बसें बनाने की क्षमता नहीं है।

बस हो या ट्रेन हमारी आबादी का ज्यादा बड़ा हिस्सा अभी भी सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर करता है। और भविष्य में भी वह इसी व्यवस्था पर निर्भर रहेगा। आज अमीर दिल्ली की आधी आबादी बसों पर चलती है। बाकी का एक तिहाई हिस्सा सायकिल पर चलता है क्योंकि उसकी बस का टिकट लेने की भी हैसियत नहीं है।

अब जरा भारत में कारों के आंकड़ें पर एक बार फिर गौर फरमाइये- हर एक हजर आबादी पर सिर्फ सात कारें। क्या नैनों की शली में सरकार कार को इतना सस्ता कर सकती है कि हर कोई कार को खरीद सके? क्या सरकार पार्किग, सड़कों, ईंधन वगैरह के लिए इतना भुगतान कर सकती है कि हर कोई कार चला सके? अगर नहीं, तो फिर जो हो रहा है क्या वह सही है?

मुद्दा दरअसल नैनों को खरीदने के अधिकार का नहीं है। मुद्दा सिर्फ यह है कि हर किसी को इस सबसिडी में इतनी हिस्सेदारी मिले कि वह उसके भरोसे आसानी से कहीं भी आ ज सके।

लेखिका सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की निदेशक हैं

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