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प्रति व्यक्ति उम्मीद

सिद्धांत तौर पर तो देखें तो न तो किसी एक तिमाही की जीडीपी वृद्धि दर आर्थिक भविष्यवाणियों में ज्यादा मदद कर पाती है और न ही प्रति व्यक्तित आय का आंकड़ा नागरिकों की खुशहाली का बहुत आदर्श पैमाना साबित...

प्रति व्यक्ति उम्मीद
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 31 May 2009 10:25 PM
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सिद्धांत तौर पर तो देखें तो न तो किसी एक तिमाही की जीडीपी वृद्धि दर आर्थिक भविष्यवाणियों में ज्यादा मदद कर पाती है और न ही प्रति व्यक्तित आय का आंकड़ा नागरिकों की खुशहाली का बहुत आदर्श पैमाना साबित होता है।

तिमाही विश्लेषणों पर जहां अल्पावधि से जुड़े विचलनों का आरोप होता है, वहीं प्रति व्यक्ति आंकड़ों पर इल्जम यह है उनमें दर्ज औसत आकलन इस मुल्क में मौजूद भयानक आर्थिक असमानता को दर्शा नहीं पाता। लेकिन इसके बावजूद सप्ताहांत में भारतीय अर्थतंत्र के लिए जरी हुए इन दोनों आंकड़ों ने फिजं में एक आशावादी रंग घोल दिया है, जो बड़ा सुहावना है।

वित्तवर्ष 2008-09 की चौथी तिमाही (जनवरी से मार्च) में जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पादन में दर्ज 5.8 प्रतिशत बढ़त वास्तव में कृषि सेक्टर की शानदार पैदावार और प्रोत्साहन पैकेजों की शक्ल में बढ़ाए गए सरकारी खर्च की वजह से मुमकिन हुई। इन दोनों मदों का सकारात्मक योगदान इतना था कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की नेगेटिव बढ़त के बावजूद चौथी तिमाही का आंकड़ा तीसरी तिमाही के 5.8 प्रतिशत के आंकड़े से नीचे नहीं आया।

रोचक है कि चौथी तिमाही की मजबूती से उत्साहित होकर कई विशेषज्ञों और शोध संस्थानों ने अगले वित्तवर्ष के लिए विकास दर अनुमानों में एक प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी है। उनके इस आशावाद को बल देने के लिए शेयर बाजरों की हाल की तेजी भी मौजूद है।

अब अगर इस सब को मंदी की विदाई के संकेतों के तौर पर देखा ज रहा है तो इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं। अलबत्ता, विश्लेषकों को ध्यान रखना होगा कि इस मजबूती के पीछे पैदावार जसे प्राकृतिक कारक के साथ-साथ राजकोषीय घाटा बढ़ाने वाले सरकारी खर्च के इजफों जसे नीतिगत निर्णय भी मौजूद है और मजबूती की असली दीर्घकालिक गारंटी सरकारी निवेश से नहीं, देश-विदेश के निजी निवेश प्रवाहों से ही मिल सकती है। 

ऐसे ही सतर्क आशावाद की गुंजइश केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकड़ों से उभरी है जिनके मुताबिक प्रति व्यक्ित आय इधर पांच फीसदी बढ़कर 3000/-मासिक हो गई है। महंगाई के दौर में 3000/- मासिक का भी हालांकि ज्यादा अर्थ नहीं है, लेकिन अच्छी बात यह है कि यह वृद्धि मंदी के हंगामे के बावजूद दर्ज हुई है। ग्रामीण अर्थतंत्र के मंदी से बेअसर रहने का यह एक और प्रमाण है। यूपीए की चुनावी जीत का अध्ययन कर रहे अनुसंधानकर्ता चाहें तो इसमें भी रोजगार गारंटी योजनाओं के सुपरिणाम खोज सकते हैं।

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