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बिहार की चुनावी जीत के विरोधाभास

बिहार में अस्सी फीसदी सीटों पर कब्जे के बाद नीतीश कुमार एंड कंपनी में जिस उत्साह और मस्ती के माहौल की अपेक्षा आम बिहारी कर रहा था, वह फुर्र है। इससे ज्यादा मौज में वे कांग्रेसी हैं, जिन्होंने सिर्फ...

बिहार की चुनावी जीत के विरोधाभास
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 29 May 2009 11:59 PM
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बिहार में अस्सी फीसदी सीटों पर कब्जे के बाद नीतीश कुमार एंड कंपनी में जिस उत्साह और मस्ती के माहौल की अपेक्षा आम बिहारी कर रहा था, वह फुर्र है। इससे ज्यादा मौज में वे कांग्रेसी हैं, जिन्होंने सिर्फ पांच फीसदी (दो) सीटें पाई हैं और उनके चेहरे पर गुलाल नतीजे घोषित होने के एक हफ्ते बाद तक उड़ता नजर आ रहा है। वो बात दूसरी है कि यह गुलाल राज्य के लिए कम, राष्ट्र के लिए ज्यादा है।

प्रदेश की चालीस सीटों में से 32 सीटें जनता दल यूनाइटेड (20) और भाजपा (12) ने जीतीं। कुल जमा अस्सी फीसदी। पर दोनों ही दलों के नेताओं के चेहरे पर बहुत चमक नहीं दिख रही। भारतीय जनता पार्टी को ठीक-ठाक सफलता मिली। अस्सी फीसदी- 15 में 12 सीटें। पर केंद्र में उसका डब्बा गोल होने से उनके नेताओं के चेहरे पर जो लालिमा दिखनी चाहिए थी, वो गायब है। पर जद यू को हुआ क्या?

दरअसल नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली (असली कर्णधार तो वही हैं) जद यू के साथ भी भाजपा से मिलता-जुलता कारण है। पच्चीस में से बीस सीटें (यहां भी अस्सी फीसदी) जीतने के बाद भी पार्टी के पास तत्काल उत्साह के बहुत सारे कारण नहीं हैं। इतनी बड़ी जीत के बाद जिस तरह नीतीश कुमार की जय-जयकार होनी चाहिए थी, उसके कारक मंचस्थल से गायब हैं। याद कीजिए, चुनाव परिणाम आने के बाद किसी भी दल या बड़े नेता ने नीतीश की सरकार या उनकी तारीफ की हो।

एनडीए का पस्तहाल नेतृत्व भी उनको ठीक से बधाई नहीं दे सका। जो कांग्रेस चुनाव के पहले नीतीश को अपने खेमे में घसीटने के लिए तत्पर थी, वही अब चुप्पी साधे है। दरअसल किंग मनमोहन को किसी बड़े सारथी की जरूरत नहीं है। आज उनके पास स्वाभाविक कृष्ण पहले ही है।

फिलहाल,अप्रत्याशित जीत के बावजूद जद(यू) नेचुरल एलाई की भूमिका में नही है और उनके बीस में से कम से कम पांच महत्वाकांक्षी सांसद चाहकर भी केंद्रीय मंत्री के रुतबे से अलग रहेंगे। तय है कि ऐसे लोगों, जिन्होंने मंत्री पद के लिए शेरवानी तक सिलवा ली हो को काम में सटाये रखना भी नीतीश कुमार के लिए बड़ी जिम्मेदारी होगी। बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे का जो बीड़ा उठाया है, उसे भी गति मिलती रहे, यह भी उनके लिए बड़ा काम होगा।

केंद्र से संबंधों में भी नीतीश के सामने चुनाव के ठीक पूर्व वाली स्थितियां नहीं हैं। तब लालू-पासवान कांग्रेस से दूर होने की प्रक्रिया में थे। अब लालू-पासवान सत्ता में तो नहीं रहेंगे पर कांग्रेस आज भी साफ-साफ नहीं कह सकती कि उनके बिना वो अगले पांच-दस सालों की लड़ाई लड़ लेगी। अभी उसने बिहार में दुश्मन नंबर एक तय नहीं किया है। नीतीश या लालू-पासवान। नीतीश के केंद्र के साथ संबंधों में उनके एक और अपने ही मित्र वॉट लगाने को तैयार हैं। बांका से निर्दलीय जीत हासिल करने के बाद दिग्विजय सिंह के हर कदम को नीतीश सोच-समझ कर आंकेंगे।

आखिर नीतीश अब करेंगे क्या? पहले की सोची-समझी स्थितियां होतीं तो केंद्र पर दबाव भरपूर डालने के सुख होते। विकल्प के तौर पर लोग यह भी सलाह दे देते कि प्रदेश में भारी जीत को भुना लिया जाए, डेढ़ साल बाद होने वाले चुनावों को जल्दी करा लिया जाए। इलेक्शन पार्टनर बदलने के विकल्प भी सामने होते।

फिलहाल ऐसा नहीं दिखता। अब नीतीश को अपने शेष एजेंडे के साथ बिहार को विकास के क्रम में आगे बढ़ाना ही होगा। कुछ महीनों बाद जब चुनाव होंगे तो वोटर उनसे निरंतरता की अपेक्षा रखता है। कानून व्यवस्था को बनाए रखने के अलावा काम धंधे की ओर उसकी निगाह लगी पड़ी है। युवकों को काम चाहिए। धंधे हैं नहीं। धंधा चाहिए। सामाजिक समरसता के समीकरणों को और मजबूत करना होगा।

जिस महादलित, महापिछड़े वर्ग की बदौलत पिछले चुनाव की तुलना में बढ़ी हुई सीटें मिलीं, उसको और मजबूत करना होगा। नीतीश कुमार लालू के राजद में उतनी बड़ी सेंध लगा पाए या नहीं, यह तो अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा के बंगले की चाबी उन्होंने जरूर ढूंढ ली है। महा दलित नाम के शब्द ने इसमें बड़ी सेंध लगाई है। इस बार चुनावों में मुसलमान जद यू की तरफ बढ़े जरूर हैं पर लगातार डेढ़ साल बाद निर्धारित चुनाव में, उनसे कितनी शिद्दत से गले मिलेंगे, यह देखना होगा।

दुविधा में तो भाजपा है। बड़ी जीत के बाद भी। 12 सीटें उसके नाम हैं पर यह उसकी कितनी बड़ी जीत है, ये बात उसे लगातार परेशान करती है। प्रदेश में जीत भले ही जद यू-भाजपा गठजोड़ की हुई हो, पर नीतीश नाम का योगदान उसे सोचने-विचारने पर मजबूर करता रहेगा। भाजपा के नेता अभी से यह कहने लगे हैं कि माइनस नीतीश क्या पार्टी की उतनी बड़ी जीत होगी। खास तौर से जब संगठन कमजोर हो।

चुनौतियां लालू यादव के सामने कम नही हैं। इस बार जद यू को मात्र दो फीसदी वोट ज्यादा मिले पर सीटों की संख्या में अंतर पांच गुने (जद(यू)-20, राजद-4) का हो गया। सबसे बड़ी बात साख बचाने की है। लालू पुराने योद्धा हैं। अगर इस बार भी उन्होंने इतना परिÞाम नहीं किया होता तो सीटें एकाध कम और होती। जिस तरह गांव-गांव घूमे, उससे थोड़ा बहुत वोट प्रतिशत तो बचा होगा, यह माना जा सकता है। पर माय समीकरण का क्या होगा? यादव वोटर का बड़ा वोट बैंक अब भी उनके साथ है, यह तय है। पर दूसरा हिस्सा नहीं। साथी भी बहुत खुश नहीं हैं।

रघुवंश प्रसाद सिंह को बार-बार गुस्सा आ रहा है। लालू के पहले निशाने पर नीतीश होंगे, यह तो तय है पर कांग्रेस जब चार से दस फीसदी वोट पा चुकी है बराबरी के दज्रे पर है। पासवान से उनको कोई खतरा नहीं है। जल्दी ही होने वाले 17 विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव आने वाली तस्वीर और साफ करेंगे पर उसमें लालू के लिए उम्मीद बहुत नहीं है। पुरानी इमेज का भूत अभी उनके पीछे है, यह इस चुनाव ने दिखाया ही है। पासवान के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। हार का दुख उन्हें परेशान करेगा। पासवान ने हाजीपुर के लिए बहुत किया पर रणनीतिक गलती ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। कांग्रेस से दुश्मनी लेने का सयानापन लालू-पासवान दोनों को महंगा पड़ा। अब वो करेंगे क्या, यह भविष्य के रास्ते ही बताएंगे।

कांग्रेस की स्थिति बाहर-बाहर तो मस्त है, पर रास्ते टेढ़े-मेढ़े हैं। लोकसभा चुनाव में दो सीट और दस फीसदी वोट के हिसाब से ही विधानसभा चुनाव में भी उसे इसी अनुपात में हिस्सा ज्यादा हासिल करना होगा। लालू का साथ उन्हें अपनी जमीन बनाने में बाधक है और दुश्मनी में उतनी धार नहीं दिखती। सांगठनिक स्तर पर हवा-हवाई ज्यादा है। टिकटों की खरीद-फरोख्त और चंदे में कमीशनबाजी के आरोप बड़े नेताओं को घेरे में लेते हैं। फिर सवाल है राहुल गांधी कहां-कहां जाएंगे, जान फूंकेंगे। लालू और कांग्रेस का लंबे समय तक रहा साथ कांग्रेस के लिए दुविधापूर्ण साबित हो रहा है। यानी सबके लिए लड़ाई अभी बाकी है दोस्त।

लेखक ‘हिन्दुस्तान’ में पटना संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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