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अशांति और अस्थिरता

भारत के प्रमुख पड़ोसी देशों में इस समय अराजकता, अशांति और अस्थिरता का माहौल बना हुआ है। एक ओर जहां भारत आर्थिक विकास की नई ऊंचाइयां नापते हुए विश्व की महान आर्थिक ताकत बनने के सपने को मूर्त रूप देने...

अशांति और अस्थिरता
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 28 May 2009 08:54 PM
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भारत के प्रमुख पड़ोसी देशों में इस समय अराजकता, अशांति और अस्थिरता का माहौल बना हुआ है। एक ओर जहां भारत आर्थिक विकास की नई ऊंचाइयां नापते हुए विश्व की महान आर्थिक ताकत बनने के सपने को मूर्त रूप देने में लगा है, वहां पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जसे पड़ोसी देशों में से किसी का अस्तित्व खतरे में पड़ा है तो किसी का सामाजिक व आर्थिक ताना-बाना टूटता ज रहा है।

पाकिस्तान ने आतंकवाद की जिस आग को न केवल हवा दी बल्कि आतंक के निर्यात को अपनी सरकारी नीति बनाई थी, आज वह स्वयं आतंक की आग में बुरी तरह झुलसा हुआ अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। नेपाल में 2007 में राजशाही के खात्मे के साथ उम्मीद बंधी थी कि अब लोकतांत्रिक सरकार मुल्क को स्थिरता देगी और नेपाल आर्थिक मजबूती की पटरी पर खड़ा होगा लेकिन माओवादी नेताओं की हठधर्मिता, अदूरदृष्टि और भारत विरोधी नीति ने फिर एक बार देश को राजनीतिक उलझन में फंसा कर अस्थिर कर दिया है।

श्रीलंका में अभी-अभी लिट्टे का तांडव समाप्त हुआ है। पिछले पखवाड़े लिट्टे सुप्रीमो वी. प्रभाकरन और लिट्टे के सफाए के बाद मुल्क के सामने अब अधिकारों के विकेन्द्रीकरण की चुनौती दरपेश है। बेशक कट्टरपंथी सिंहली यह मान कर चल रहे हों कि जतीय समस्या को ताकत के जरिए हल किया ज सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि यह सफलता स्थाई नहीं है। जब तक तमिलों को संविधान के दायरे में जयज अधिकार नहीं दिए जते, तब तक श्रीलंका में स्थाई शांति की उम्मीद करना बेमानी है।

भारत के पूर्व में म्यांमार और बांग्लादेश दो ऐसे देश हैं जहां यूं तो शांति का माहौल नजर आता है लेकिन ये दोनों मुल्क अस्थिरता के मुहाने पर खड़े हैं। बांग्लादेश में हाल ही में बांग्लादेश रेंजर्स के विद्रोह में सौ से अधिक लोगों की जनें गईं। कट्टरपंथी जमातें जड़ें जमाए हुए हैं। आतंकी गुटों का ढांचा बरकरार है और कब वहां अशांति फैल जए, कहना कठिन है।

म्यांमार में दशकों से सैनिक शासकों का कब्जा है। लोकतंत्र बहाली आंदोलन की नेता आंग सान सू की 13 साल से जेल में या नजरबंदी की हालत में हैं। विश्व समुदाय, विशेष रूप से अमेरिकी चेतावनियों और प्रतिबंधों को धता बताते हुए सैनिक शासक मनमानी कर रहे हैं। इस समय उत्तर कोरिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरह म्यांमार भी अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप का केन्द्र बना हुआ है।

इन तमाम छोटे देशों के राजनेता अपना उल्लू सीधा करने के लिए अपने लोगों को भारत का हौव्वा दिखाते रहते हैं। बिग ब्रदर सिंड्रोम से ग्रस्त इन देशों के आंतरिक मामलों में भारत कोई सलाह देता भी है तो उसे हस्तक्षेप करार दिया जता है जबकि जब कभी इन देशों पर कोई बाहरी मुसीबत या दैवी आपदा आती है तो मदद के लिए भारत की ओर ही निहारते हैं।भारत के पड़ोस में मौजूदा हालात के एक कॉमन फैक्टर के पीछे चीन हमेशा रहा है।

विदेश मंत्रालय के सामने इन देशों से डील करना दुधारी तलवार पर चलने जसा हो गया है। इनमें से हरेक भारत को कदम पीछे खींचने के लिए चीनी फैक्टर का सहारा लेता रहा है। पाकिस्तान और चीन के बीच संबंध जग जहिर हैं। इस पर कुछ कहने की जरूरत नहीं। नेपाल में राजशाही हो या मौजूदा माओवादी, हमेशा भारत के खिलाफ चीनी कार्ड खेलते रहे हैं। श्रीलंका में हंबनतोता बंदरगाह निर्माण समेत कई परियोजनाओं में चीन है। बांग्लादेश और म्यांमार को भी चीन से भारी मात्रा में आर्थिक और सैन्य मदद मिलती है। दरअसल, ये देश हथियारों, सैन्य प्रशिक्षण और ढांचागत विकास के लिए चीन से मदद लेते हैं। भारत भी इन देशों को हर तरह से मदद देता है लेकिन बिग ब्रदर सिंड्रोम में भारतीय मदद खो जती है।

झुलसता पाकिस्तान

पाकिस्तान भारत के लिए सबसे बड़ी समस्या बना हुआ है। पाकिस्तान के साथ तो तीन बड़े युद्ध पहले ही हो चुके हैं। युद्ध में नाकामयाबी के बाद पाकिस्तान ने आतंक का सहारा लेते हुए भारत के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ा। अब यह आतंकवाद ही उसके गले की फांस बन गया है।

अस्सी के दशक में पाकिस्तान और अमेरिका ने जिस मुजहिदों को अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना को पराजित करने के लिए हथियार और प्रशिक्षण दे कर तैयार किया था, अब वही मुजहिद कभी अल कायदा तो कभी तालिबान के नाम से अपने की आकाओं के लिए मुसीबत बन गए हैं। पूरा पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत उनकी दरिंदगी से लहू-लुहान है। सीमांत प्रांत ही नहीं, पाकिस्तान के तमाम बड़े शहर यहां तक की राजधानी इस्लामाबाद में भी तालिबानियों ने खून की होली खेली। इनकी हैवानियत का सबसे बड़ा शिकार बनीं महिलाएँ।

स्वात, बुनेर, मिंगोरा समेत पूरे सीमांत प्रांत में इनका एक छत्र राज चला। धर्माधता के शिकार तालिबान के नेता भी ऐसे मूढ़ तंग दिमाग कठमुल्ले मिले जिन्होंने महान धर्म इस्लाम की गलत व्याख्या कर युवा तालिबान को गुमराह किया। इनके दिमाग में धर्म का जहर इस तरह से भरा गया कि ये अपनी जन की भी परवाह नहीं करते। आत्मघाती बम बन चुके ये लोग सभ्य समाज के लिए बड़ा खतरा बन गए। तालिबान के रूप में पाकिस्तान ने जो खड्डा भारत के लिए खोदा था, अब वह स्वयं उसमें दफ्न होने के कगार पर खड़ा है। तालिबान के बढ़ते असर से यह आशंका पैदा हो गई कि कहीं पाकिस्तान के परमाणु हथियार तालिबान के कब्जे में न चले जएं।

पाकिस्तान अफगानिस्तान में आतंक के खिलाफ जंग में अमेरिका का सबसे बड़ा सहयोगी बना हुआ है। बेशक सहयोग देना उसकी मजबूरी है क्योंकि 9/11 के अमेरिका पर आतंकी हमले के बाद जिन दो टूक शब्दों में अमेरिका ने पाकिस्तान को सहयोग देने या फिर पाषाण युग में लौट जने की धमकी दी थी, उसके बाद पाकिस्तान के समक्ष पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में अपने ही लोगों का खून बहाने का रास्त चुनने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं बचा था।

जॉर्ज बुश के शासन काल में पाकिस्तान धन ले कर तालिबान के खिलाफ नूरा कुश्ती करता रहा लेकिन ओबामा अब धन के बदले नतीजों के लिए मजबूर किए हुए हैं। पानी सिर से ऊपर जते देख और अमेरिका के बढ़ते दबाव के बाद अब पाकिस्तानी सेना को तालिबान के खिलाफ गंभीर कार्रवाई करने को मजबूर होना पड़ा है। अमेरिका सालाना डेढ़ अरब डालर की मदद के बदले पाक सेना का इस्तेमाल तालिबान के खिलाफ कर रहा है। एक तरह से पाकिस्तानी फौज  भाड़े की टट्टू बन गई है जो पैसे के बदले हथियार चलाती है।

भारत पर असर
मुंबई पर आतंकी हमले के बाद फिर दोनों देशों के संबंधों में गहरे तनाव पैदा हो गए। भारत ने साफ कहा है कि जब तक इस हमले के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ पाकिस्तान कार्रवाई नहीं करता और उन्हें भारत को नहीं सौंपता, तब तक बातचीत संभव नहीं है। पाकिस्तान सरकार की मजबूरी है कि वह सेना की मर्जी के खिलाफ कदम नहीं उठा सकती। मुंबई हमले के पीछे वहां की सेना और आईएसआई थी। लिहाज सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई कर नहीं सकती।

नेपाल में अस्थिरता

ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व धार्मिक रूप से भारत के सबसे करीब रहा नेपाल भी घोर अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। जनकारों की मानें तो निकट भविष्य में पाकिस्तान के मुकाबले नेपाल भारत के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है। वहां की ताज घटनाएं इसका संकेत भी देती हैं। माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड ने आम सहमति के आधार पर शांति प्रक्रिया आगे बढ़ाने और संविधान निर्माण के करार को तोड़ते हुए सेनाध्यक्ष जनरल रुक्मांगत को हटाने का फैसला किया।

राष्ट्रपति राम बरण यादव ने प्रधानमंत्री का फैसला पलट दिया। इसके बाद प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे कर देश को राजनीतिक अस्थिरता की आग में झोंक दिया। उन्होंने व उनके समर्थकों ने नई सरकार बनाने की राह में रोड़े भी अटकाए लेकिन 20 से अधिक पार्टियों के सहयोग से माधव कुमार नेपाल के नेतृत्व में नई सरकार बन गई। इसके स्थिर रहने पर संदेह जताया ज रहा है।

नेपाल के माओवादी हमेशा चीन को अपना करीबी मानते रहे जबकि राजशाही के खिलाफ आंदोलन वे भारत की जमीन से संचालित करते थे। प्रचंड प्रधानमंत्री बनने के बाद परंपराओं को तोड़ कर सबसे पहली यात्रा पर चीन गए जबकि उनसे पहले नेपाल में सत्ता संभालने वाला हर शासक सबसे पहले भारत आता था। माओवादी भारत के साथ 1960 की संधि खत्म करना चाहते हैं। वे यह भी नहीं चाहते कि भारतीय सेना में नेपाली शामिल हों।

भारत पर असर
माओवादियों ने भारत विरोधी रुख अपनाते हुए चीन से करीबी गांठने की नीति अपनाई। भारत चाहता है कि मौजूदा सरकार चले लेकिन माओवादी नहीं चाहते कि यह सरकार टिके। हालांकि मौजूदा सरकार के प्रधानमंत्री भी माओवादी हैं और उनकी पार्टी सीपीएन (यूएमएल) है। भारत ने माओवादी नेताओं की पुरानी संधि खत्म करने या इसमें सुधार करने की मांग भी मान ली लेकिन जब ऐसा करने के नतीजों से आगाह किया तो माओवादी चुप हो गए। नेपाल चारों ओर से जमीन से घिरा (लैंड लॉक्ड) देश है। भारत के रास्ते ही उसका काम चलता है। यदि संधि समाप्त करने के बाद यदि पासपोर्ट, वीज और सीमा शुल्क की व्यवस्था लागू की जए तो नेपाल में तबाही मच जएगी। 1988 में ऐसा हुआ भी था।

श्रीलंका की समस्या

श्रीलंका में करीब 60 साल से चली आ रही सिंहली-तमिल जतीय समस्या ने 25 वर्ष पहले खूनी बाना पहन लिया जब लिट्टे आतंकवादी संगठन अस्तित्व में आया। प्रभाकरन के नेतृत्व वाले इस संगठन ने श्रीलंका को जजर्र कर दिया। इसी माह प्रभाकरन और लिट्टे के सफाए के बाद श्रीलंका पर भारत समेत तमाम देशों और संयुक्त राष्ट्र से जतीय समस्या के हल के लिए तमिलों को अधिकार दिए जने का दबाव पड़ रहा है।

महिन्दा राजपक्षे सरकार भी अब यह समझ चुकी है कि संविधान के दायरे में तमिलों को उनके अधिकार नहीं दिए तो फिर कोई लिट्टे जसा संगठन खड़ा हो सकता है। दुर्भाग्य से श्रीलंका की दोनों प्रमुख पार्टियां-सत्तारूढ़ यूएनएलएफ और यूनपी सिंहली बहुसंख्यकों की ही हिमायती रहीं। कट्टरपंथी जनता विमुक्ित पेरामुना की बैसाखियों पर टिकी राजपक्षे सरकार अब चाहती है कि लिट्टे के खिलाफ सफलता से मिली लोकप्रियता के सहारे चुनाव कराए जएं और बहुमत के साथ सत्ता में आ कर तमिल समस्या का समाधान निकाला जए।

उसने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विशेष दूतों - राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नारायणन और विदेश सचिव शिव शंकर मेनन को आश्वासन भी दिया था कि वह 1987 में भारत के साथ हुए समझोते के बाद संविधान में तमिलों को अधिकार देने संबंधी 13वां सशोधन लागू करना चाहती है। लेकिन अभी तक उदारवादी तमिलों के साथ बातचीत का कोई सिलसिला शुरू नहीं हुआ है।


भारत पर असर
श्रीलंका में तमिलों पर अत्याचारों का भारत के तमिलों पर सीधा असर पड़ता है। हाल की सैन्य कार्रवाई में हजरों निदरेष तमिल श्रीलंका में मारे गए और लाखों बेघर हुए। भारत चाहता है कि श्रीलंका सरकार तमिलों की मांगों पर सकारात्मक रुख अपनाए। इसके लिए वह मदद देने को भी तैयार है। श्रीलंका के पीड़ितों के पुनर्वास के लिए पांच सौ करोड़ रुपये की मदद दी गई है। अस्पताल खोले ज रहे हैं।

करीब 60 भारतीय डाक्टर लोगों का इलाज कर रहे हैं और दवाएं और राहत सामग्री लगातार भेजी ज रही है। भारत संघर्षरत किसी भी देश को घातक हथियार न देने की नीति अपनाए हुए है। इसका फायदा चीन व पाकिस्तान ने उठाया। चीन पहले ही श्रीलंका की कई परियोजनाओं से जुड़ गया है। श्रीलंका जनता है कि भारत के बिना वहां शांति बहाल नहीं हो सकती। इसलिए वह भारत को  साथ लेकर चलना चाहता है। सूनामी के कहर में भारत ने जिस तरह सबसे पहले उसकी मदद की थी, उससे भी श्रीलंका भारत से काफी प्रभावित है।

म्यांमार की सैन्य तानाशाही

म्यांमार लोकतांत्रिक पड़ोसी देश के लिए एक अजीब उलझन बना हुआ है। भारत की आजदी के आस-पास ही 1947 में म्यांमार (बर्मा) ब्रिटिश शासन से आजद हुआ। मौजूदा लोकतंत्र बहाली आंदोलन की नेत्री आंग सान सू की के पिता आंग सान ने आधुनिक बर्मी सेना का गठन किया।

उनकी हत्या 1947 में ही हो गई थी। एंटी फासिस्ट पीपल्स फ्रीडम लीग (एएफपीएफएल) नाम से बने राजनीतिक पार्टियों के गठबंधन के नेता ऊ नू प्रधानमंत्री बने लेकिन पार्टी की आंतरिक कलह के कारण 1958 में सरकार ने अंतरिम व्यवस्था के तहत काम चलाऊ सरकार चलाने का जिम्मा सेना को सौंपा। जनरल ने विन ने सत्ता संभाली। उतार चढ़ाव के बीच ने विन 26 साल तक सत्ता पर काबिज रहे। फिर सैनिक जनरलों के एक गुट ने सत्ता पर कब्ज कर लिया। लोकप्रिय बन चुकी सू की को भी 1989 में नजरबंद कर दिया। वह अब तक आजद नही हैं।

अमेरिका समेत तमाम देश सू की की रिहाई के लिए सैनिक शासकों पर दबाव डाल रहे हैं, लेकिन चीन के बलबूते वे किसी की बात सुनने को तैयार नहीं। सैनिक शासकों को सू की को प्रताड़ित करने के लिए उनकी नजरबंदी की मियाद पांच साल और बढ़ा दी है। ऐसा 2010 में होने वाले चुनावों से उन्हें दूर रखने के लिए किया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति  ओबामा ने गत मंगलवार को म्यांमार शासकों से सू की को तुरंत रिहा करने को कहा है, लेकिन उनकी बात का कोई असर नहीं हुआ।

भारत की मजबूरी
भारत लगातार म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के लिए सू की का साथ देता रहा लेकिन चीन के बढ़ते प्रभाव और म्यांमार के सैनिक शासकों द्वारा पाकिस्तान से करीबी गांठते देख भारत को आलोचनाएं सहते हुए अपनी नीति में बदलाव लाना पड़ा और म्यांमार के साथ सैन्य सहयोग व द्विपक्षीय संबंध मजबूत करने पड़े। अब आलम यह है कि भारत न केवल म्यांमार में सड़कें और अन्य ढांचागत सुविधाएं विकसित करने में लगा है बल्कि उसे टी-55 टैंक, आईलैंडर विमान और छोटे हथियारों की भरपूर सप्लाई भी कर रहा है।

इसके बदले म्यांमार ने भारतीय नौसेना को अपने बंदरगाह पर कुछ सुविधाएँ भी दी हैं। पहली बार 2004 में सैनिक शासक चौकड़ी के अध्यक्ष सीनियर जनरल थान श्वे भारत आए और उन्होंने घोषणा की थी कि वह म्यांमार की जमीन का भारत विरोधी कार्रवाइयों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देंगे।

म्यांमार के प्रति भारत के रवये में आए बदलाव के कारण कई देश भारत की आलोचना भी करते हैं लेकिन राष्ट्रहित के लिए भारत को ऐसा करना पड़ा। अब फिर एक बार सारी दुनिया का ध्यान म्यांमार की ओर है और देखना है कि 2010 में चुनाव तक यह क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के खेल का कैसे सामना करेगा।

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