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सुप्रीम कोर्ट की दो टूक

उत्तर भारतीयों के विरुद्ध महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विष-वमन को गंभीरता से लेते हुए उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा कि देश को खंडित करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। राज ठाकरे के खिलाफ दायर जनहित...

 सुप्रीम कोर्ट की दो टूक
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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उत्तर भारतीयों के विरुद्ध महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विष-वमन को गंभीरता से लेते हुए उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा कि देश को खंडित करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। राज ठाकरे के खिलाफ दायर जनहित याचिका को अदालत ने सीधे स्वीकार करने से इंकार करते हुए आदेश दिया कि कानून-व्यवस्था बनाए रखना, चूंकि राज्य सरकार का विषय है, इसलिए याचिकाकर्ता को मुम्बई उच्च न्यायालय जाना चाहिए और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की मान्यता रद्द करने के मुद्दे पर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया जाना चाहिए। कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों से अपेक्षा की जाती है कि राष्ट्र की एकता और अखंडता से जुड़े विषय पर कम से कम वे तो वे क्षुद्र राजनैतिक हितों से उठकर सोचेंगे। पर महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर अत्याचार के दौरान इन दोनों दलों की भूमिका अस्पष्ट व संदिग्ध रही है। जो रुख उच्चतम न्यायालय ने अपनाया है ऐसा स्वर राष्ट्रीय राजनीति करने वाले दलों के खेमों से उभरना चाहिए था। मुम्बई और महाराष्ट्र में गरीब उत्तर भारतीय मेहनतकशों पर जुल्म के लिए भाजपा परोक्ष तौर पर जिम्मेदार है। शिव सेना उसका सहयोगी दल है। जब उत्तर भारतीयों को भगाने या मुम्बई नगर निगम में हिन्दी भाषा के प्रयोग पर जेल में डालने की धमकी दी जाती है, तब वे क्यूंकर मौन साधे रह सकते हैं? आज अंध क्षेत्रवाद की आवाज अन्य राज्यों में भी सुनाई पड़ रही है। संविधान प्रत्येक नागरिक को देश में कहीं भी बसने व नौकरी या रोजगार का अधिकार देता है। इस नीति का एक उद्देश्य योग्यता को सम्मान देना भी है। अब यदि उड़ीसा के विद्यालयों में केवल स्थानीय लोगों को ही अवसर मिलेगा तो इससे निश्चय ही योग्यता के सिद्धान्त का क्षरण होगा। पश्चिम बंगाल के मंत्री का यह बयान कि मारवाड़ी समाज ही राज्य में भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार है, हास्यास्पद है। विरोध होने पर मंत्री महोदय ने माफी मांग ली है। तब राजस्थान की मुख्यमंत्री इस विवाद को क्यों जिंदा रखना चाहती हैं? लगता है ज्यादातर नेताआें और दलों के पास राजनैतिक मुद्दों का अभाव है। वे जन भावनाएं भड़काकर चुनावी जंग जीतना चाहते हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय प्रपंच का चुनावी कवच गढ़ना किसी के हित में नहीं है। इक्कीसवीं सदी में इन मुद्दों की आड़ में देश और जनता को बांटने के कोई प्रयास सफल नहीं हो सकते। हां, प्रखर राष्ट्रवाद के नुमाइंदे जब राष्ट्रभाषा का भी विरोध करते हैं, तब आश्चर्य अवश्य होता है। राष्ट्रभक्त ही नहीं, बाजार की ताकतें भी आज भारत की अखंडता बनाए रखने को दृढ़प्रतिज्ञ हैं। ऐसे में चुनावी मेंढकों की टर्र-टर्र का क्या महत्व है?

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