फोटो गैलरी

Hindi News बराबरी का हक

बराबरी का हक

आर्थिक विकास की दर निरंतर तेजी से बढ़ रही है। उधर भुखमरी और आत्महत्याएं इसको झुठला भी रही हैं। ऐसा ही विरोधाभास स्त्री की सामाजिक स्थिति में भी है। ऊंचे आेहदों पर प्रतिष्ठित स्त्रियां, अपने मुखर...

 बराबरी का हक
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
ऐप पर पढ़ें

आर्थिक विकास की दर निरंतर तेजी से बढ़ रही है। उधर भुखमरी और आत्महत्याएं इसको झुठला भी रही हैं। ऐसा ही विरोधाभास स्त्री की सामाजिक स्थिति में भी है। ऊंचे आेहदों पर प्रतिष्ठित स्त्रियां, अपने मुखर अस्तित्व की उद्घोषणा कर रही हैं। दूसरी आेर मादा भ्रूण हत्या, बाल विवाह, घरेलू हिंसा, बलात्कार, यौन शोषण जैसी स्थितियां स्त्री को ‘सर्वहारा’ साबित कर रही हैं। आम स्त्री ‘राजेन्द्र यादव’ के शब्दों में ‘फ्लोटिंग इकाई’ है। दूसरे के घर जाकर अपना नाम, जाति, पहचान सब खो देती है। तसलीमा नसरीन का यह आत्मकथ्य उनका भोगा हुआ यथार्थ है, साथ ही : ‘हम स्त्रियों का जो प्राप्य था, उसे खल पुरुषों ने लूट लिया है। मैं जितनी बार बोलना चाहती हूं, उतनी ही बार..जीभ पर कांटा रखा जा रहा है। .. हजारों वषरे से पीठ पर नीले निशान लिए, आंख में अनिद्रा लिए, हम भाषाहीन हैं। .. नारी के कंठ से भाषा फूटे, ऐसी अंगारी फूटे कि आग की तरह सब जगह फैल जाए और स्त्रियां जल कर इस्पात हो जाएं।’ इस्पात होने की यह प्रक्रिया कहीं-कहीं तो इतनी तीव्र हो चली है कि स्त्रियां पुरुष नामक तत्व को अपने जीवन से उखाड़ फेंकने को तैयार हैं। विज्ञान के नए से नए प्रयोग उसे अकेले अपने ही शरीर से सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता देने का वायदा कर रहे हैं। पुरुष का साथ किसी को अपेक्षित हो भी तो, विवाह के झंझट के बिना साथ-साथ रहने वाली स्त्रियां विरल नहीं हैं। कानून भी ऐसे संयोग से उत्पन्न बच्चों को वैध मानने लगा है। अब यह इस्पाती स्त्रियां एक पुरुष की बेवफाई से आहत होकर टूटती नहीं, अकेली ही आगे बढ़ जाती हैं। आज की कामकाजी महिला बाजीगर की तरह घर और बाहर के काम में सन्तुलन बिठाती रहती है। अक्सर बच्चों और परिवार को पूरा समय न दे पाने के अपराधबोध से दुखी रहती है। तरक्की के सारे मौके छोड़ती जाती है- बच्चों के लिए, पति और परिवार के लिए। इस प्रवृत्ति के पीछे मनोविज्ञानी और जीवविज्ञानी स्त्री की शारीरिक और मानसिक संरचना को जिम्मेवार ठहराते हैं। बच्चे के जन्म और पालन के दौरान मां के शरीर में ‘ऑक्टोसिन’ नाम हॉरमोन का झरना-सा झरता है। यही उसकी संवेदनशीलता, प्यार और भरोसा करने की भावना को जन्म देता है। इसी ताकत या कमजोरी का, पितृसत्तात्मक समाज फायदा उठाता रहा। अब लड़कियां शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर नतीजे दे रही हैं। इसीलिए रोजगार के अवसर भी मिल रहे हैं। अक्सर पति से ज्यादा वेतन भी मिलता है। स्त्री का नया प्रखर तेज पुरुष को चौंधिया रहा है। वह अपने अहं की सुरक्षा के रास्ते तलाशने लगा है। निस्तेज हुआ पुरुष घर, आफिस और सड़क पर आक्रामक हो गया है। आेशो ने कहा था कि हर पुरुष में भी स्त्री तत्व रहता है। करुणा, ममता, संवेदनशीलता जैसे सोए भावों को अपने में जगा कर वह स्त्री को समानता का अधिकार देने और दिलाने की मुहिम तेज करे। यही एक रास्ता है।ड्ढr ं

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें