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बांग्लादेश : खतरों के बीच पत्रकारिता

भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका में खबरों की प्रामाणिकता की जांच जिस तरह से की जाती है, उस तरह बांग्लादेश में नहीं होती। वहां 37 साल बाद भी मीडिया की स्थिति नाजुक है। सत्ताधारियों के इशारे पर न चलने पर...

 बांग्लादेश : खतरों के बीच पत्रकारिता
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका में खबरों की प्रामाणिकता की जांच जिस तरह से की जाती है, उस तरह बांग्लादेश में नहीं होती। वहां 37 साल बाद भी मीडिया की स्थिति नाजुक है। सत्ताधारियों के इशारे पर न चलने पर पत्रकार मारे जा रहे थे या उनका अपहरण हो रहा था अथवा उन्हें डराया-धमकाया जा रहा था। यही कारण है कि 2006 में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए बनी एक समिति ने पत्रकारों के लिए एशिया में सबसे हिंसक जगह बांग्लादेश को बताया था। सत्तारूढ़ दल के समर्थन के बिना वहां इलेक्ट्रानिक मीडिया (टीवी या रेडियो) का लाइसेंस मिलना असंभव था। ऐसी विकट परिस्थिति के बावजूद वहां मीडिया ने तरक्की की। आज बांग्लादेश में 201 दैनिक हैं, जिनमें से ज्यादातर बांग्ला में हैं। साथ ही टेलीविजन चैनल और रेडियो स्टेशन भी हैं, किन्तु अभी भी इसे आदर्श स्थिति नहीं कहा जा सकता। तब मजदूर संघों की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और प्रिंट व इलेक्ट्रानिक दोनों मीडिया में ‘भड़काने’ वाली खबरों तथा टॉक शो पर पाबंदी लगा दी गई थी। आपात्काल ने अधिकारियों को यह अधिकार भी दिया कि अगर कोई समाचारपत्र, किताब, प्रिंटिंग प्रेस या इलेक्ट्रानिक मीडिया सरकार के आदेश या पाबंदियों का उल्लंघन करता है तो उस पर रोक लगा दी जाए। पिछले पूरे साल मीडिया पर हमले होते रहे। देशभर में छात्रों का उपद्रव फैलने के बाद ढाका और पांच अन्य शहरों में कफ्यरू लगाया गया, जिसके बाद हमले और तेज हो गए। कामचलाऊ सरकार द्वारा मीडिया को निर्भय होकर लिखने का आश्वासन देने के बावजूद अनेक पत्रकारों को पीटने और उन्हें नजरबंद करने की खबरें आती रहीं। एकुशे टेलीविजन और सीएसबी टीवी को प्रेस सूचना विभाग से लिखित चेतावनी दी गई कि वे ‘भड़काऊ’ खबरें प्रसारित न करें। कुछ टॉक शो पर पाबंदी तक लगाी। मीडिया मालिकों को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेजा गया। उन पर अखबार को लेकर किसी तरह के आरोप नहीं थे। 2007 में इस्लाम विरोधी काटरून छापने पर देश के सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले अखबार ‘प्रोथम अलो’ के सप्लीमेंट ‘अलपिन’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उसके काटरूनिस्ट को पांच माह के लिए जेल भेज दिया गया था। इस सप्ताह दिल्ली में मौजूद ‘प्रोथम अलो’ के संपादक मती-उर रहमान ने बताया कि बांग्लादेश में पहले की तुलना में मीडिया की स्थिति अब ठीक है। वैसे मीडिया अभी भी दबाव में है और खुलकर खबरें नहीं देता, लेकिन उम्मीद है कि वह ज्यादा तटस्थ और स्वतंत्र रूप से काम कर सकता है। ‘प्रोथम अलो’ मतलब प्रकाश की पहली किरण के संपादक रहमान के अनुसार उनका पत्र नरम वामपंथी विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध है, पेशेवर रिपोर्टिंग में विश्वास करता है तथा समाज से सरोकार रखने वाले मुद्दों को उठाता है। पत्र ने मदरसों की गुप्त कार्रवाई भी उजागर की। अब पहले के मुकाबले कम प्रतिबंध हैं किन्तु रहमान के अनुसार यह स्थिति आदर्श नहीं है। पहले सस्ते दामों पर न्यूजप्रिंट केवल सरकार द्वारा दिया जाता था। बाद में यह खत्म हो गया। पहले न्यूजप्रिंट उच्च आयात शुल्क के साथ उपलब्ध था, जिसके चलते बड़े समाचारपत्रों का मुनाफा कम हुआ और कई छोटे पत्र तो बंद हो गए। लेकिन अब यह शुल्क भी कम किए गए हैं। मीडिया अब पहले की तरह सरकारी विज्ञापनों पर भी निर्भर नहीं है, जो प्रति कॉलम सेंटीमीटर 300 टका था, जबकि प्राइवेट सेक्टर वाले 1500-1800 टका प्रति कालम देते हैं। कामचलाऊ सरकार ने सूचना के अधिकार के कानून का ड्राफ्ट बना कर इसे खुली चर्चा के लिए वेबसाइट पर भी डाला है। रहमान स्वीकार करते हैं कि दक्षिण एशियाई सहयोगियों की तरह बांग्लादेश का मीडिया अभी सशक्त नहीं है। वहां वेतन कम है, असुरक्षा ज्यादा है और सही व योग्य व्यक्ितयों को नौकरी की ओर आकर्षित करना कठिन है। ‘प्रोथम अलो’ ने अपने सीनियर स्टॉफ को रोके रखने के लिए रखरखाव के वेतन के साथ 40 होंडा कारें दीं। लाभ में चल रहा प्रमुख अखबार ऐसा कर सकता है, लेकिन देश में बहुत से ऐसे अखबार भी हैं, जो नियमित वेतन भी मुश्किल से दे पाते हैं। बहुत से पत्रकार अपने अधिकारों के लिए लड़ने के बजाए चुप रहना पसंद करते हैं। रहमान के अनुसार यहां पार्टियों के आधार पर मीडिया का ध्रुवीकरण है। मीडिया दलगत आधार पर बंटा हुआ है और उनके हितों को बढ़ावा देता है। बांग्लादेश का मीडिया दिगभ्रमित और अनिश्चय का शिकार है, जिसका असर प्रेस की आजादी पर पड़ रहा है।

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