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उड़ी-उड़ी जाला अंचरवा हो लाल

रामनाथ जी मेर जिले के हैं, स्थानीय ख्याति के लेखक, सत्तर के ऊपर, जब इधर आते हैं तो मिल लेते हैं और आते ही कोई बहस छेड़ देते हैं। इस बार कुर्सी पर बैठते ही बोले, ‘भाई साहब आप ही बताईए, उत्तर प्रदेश का...

 उड़ी-उड़ी जाला अंचरवा हो लाल
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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रामनाथ जी मेर जिले के हैं, स्थानीय ख्याति के लेखक, सत्तर के ऊपर, जब इधर आते हैं तो मिल लेते हैं और आते ही कोई बहस छेड़ देते हैं। इस बार कुर्सी पर बैठते ही बोले, ‘भाई साहब आप ही बताईए, उत्तर प्रदेश का विभाजन जब होगा, तब होगा, इस प्रदेश में खास तरह से पूर्वाचल में इतने मजदूर कहां से अब भी पैदा हो रहे हैं। डेढ़ सदी पहले इन्हीं क्षेत्रों के गिरमिटिया मजदूरों को अंग्रेज अपने नऐ उपनिवेशों के विकास के लिए लाए थे, उन्हीं मजदूरों में अनेक शिक्षित होकर आज उच्चतम पदों पर पहुंच गए हैं। आप छेदी जगन, अनिरुद्ध जगन्नाथ, वासुदेव पांडे को जानते ही हैं और आज यहां के मजदूर वैसे ही गरीब, अशिक्षित भाई इधर-उधर मार-मार फिर रहे हैं। आखिर क्यों?’ मुझे कहने दीजिए.. आज जिस ट्रेन से आया उसमें यही मजदूर ठुसे हुए थे, औरतें, बच्चे गठरी-मोटरी, बोरों में अर्तन-बर्तन, मैले कपड़े, मगर बातें जोर-ाोर से, चहक-चहक कर। अपनी ही भीड़ में धंसे एक अधेड़ मजदूर ने किसी नौजवान कहा, ऐ बसावन, उतरि के नलवा से पानी ले आवउ त फुर्ती से! बसावन ने आनाकानी की, ‘अर गड़िया खुल जाई की ना’? अधेड़ मजदूर बिगड़ गया, ‘तइ जा मेहरारू के लुगा के नीचे छिप जा.. जनबुड़बक.. अर गड़िया खुल जाई तो चेनवा नहीं खींच दिया जाएगा?’ भाई साहब, उनका वार्तालाप सुनकर मैं मन-ही-मन खूब हंसा! मैं आपसे कहता हूं, हमार ये मजदूर चाहे जितने कष्ट-दुख सहें, उनके उल्लास को कोई नहीं दबा सकता। मैं आश्चर्य से उनको देखने लगा। उनका सम्भाषण जारी था, ‘इन मजदूरों की भी अपनी जिंदगी है, अपनी अलमस्ती है। आप लोग तो शहरी हैं, महीन खाते हैं, महीन पहनते हैं, महीन बोलते हैं, उनकी बातों और उनके संगीत में आपको आनंद नहीं आएगा। पर यह सच है भाई साहब कि दु:ख, हैरानी-बीमार में भी वे अपनी खुशी-उल्लास को अभिव्यक्त करने का अवसर निकाल ही लेते हैं।’ उनके पात्र, चैता तथा अन्य गाने-बजाने में जो सुर, लय और लोच है, उसका कोई जवाब नहीं। प्रकृति के निरंतर संपर्क में रहकर ही उनको यह सब प्राप्त है। भाई साहब, आज भी जब उनकी औरतें, झुंड में मेला, नदी-स्नान या झाड़-फूंक के लिए गाती हुई जाती हैं, तो उनके साथ चलने वाले दुबले-पतले बच्चे समय काटने के लिए अपनी मांओं से कहते हैंड्ढr ‘माई, नून दे हा में चाटत चली..’ड्ढr ‘हां, भाई साहब, अपने जीवन के यथार्थ के द्वारा ही वे अपनी खुशी, उत्साह, आदि को प्रकट करते हैं। आंधी, पानी वर्षा तथा बाढ़ में विस्थापन तथा अन्य कष्टों में भी उनका उल्लास कम नहीं होता। देखिए, लोक कवि ने उसका चित्रण कैसे किया है:ड्ढr ‘पूरब से आन्ही आइल, पछिम से पानी,ड्ढr उड़ि-उड़ि जाला अंचरवा हो लाल।’ ‘भाई साहब, और भी सुनिए, इन्हीं गरीब लोगों ने, जिनमें धुर पिछड़े वर्ग, अनसूचित जातियों ने इस देश की नाटय़ परम्परा के विभिन्न रूपों को जीवित रखा है। फसल कटने के बाद दल बनाकर इन कलाओं का प्रदर्शन होता था। नौटंकी, स्वांग, बहुरुपिया, जोगीड़ा, भांड का नाच और नाटक। आधुनिक युग के आगमन से यह परम्परा लुप्त हो गई। शहरों में कुछ उत्साही रंगकर्मियों की वजह से कभी-कभी कुछ हो जाता है, सामान्य लोग उसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते। जब रंगमंच नहीं तो नाटक भी बहुत कम लिखे जाते हैं। इप्टा ने इस दिशा में कुछ अच्छे काम किए।’ ‘रामनाथ जी, जमाना तेजी से बदल रहा है, कुछ नयी बात कीािए, नए सुझाव दीजिए..।’ मेर कहने का मतलब है, आप इस प्रदेश को जोड़िए या तोड़िए, लेकिन आप स्व की चिंता छोड़कर गांव में मेहमान की तरह नहीं, बल्कि उनके दुख-सुख के साथी बनकर उनके बीच रहिए, और कुछ ठोस कार्य कीािए, भाषणों व उपदेशों की जरूरत नहीं। कमजोर नींव पर ऊंची, खूबसूरत इमारत बनाने से हमेशा खतरा रहेगा।ड्ढr लेखक प्रसिद्ध कहानीकार हैं।ं

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