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डर की गिरफ्त

ालसीदास की प्रसिद्ध पंक्ित ‘भय बिनु प्रीति न होय गुसांईं’ हमार जीवन की पूरी तरह लागू होती है। सच ही, हमारा भगवद् प्रेम न जाने कितने डरों का परिणाम होता है। किन्तु जहां भगवान का डर हमें गलत कामों के...

 डर की गिरफ्त
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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ालसीदास की प्रसिद्ध पंक्ित ‘भय बिनु प्रीति न होय गुसांईं’ हमार जीवन की पूरी तरह लागू होती है। सच ही, हमारा भगवद् प्रेम न जाने कितने डरों का परिणाम होता है। किन्तु जहां भगवान का डर हमें गलत कामों के परिणाम की कल्पना से डराकर सत्कर्म की ओर प्रेरित करता है, वहीं दूसर काल्पनिक डर अपनी भयानक संभावनाओं से हमें निष्क्रियता की ओर धकेलते हैं। कल्पना न हो तो शायद डर भी न हो। बच्चा जब लडख़ड़ाते कदमों से चलना सीखता है, तब गिरने की कल्पना से डर बिना निरंतर चलने की चेष्टा करता रहता है। पर बड़े हो जाने पर हम कोई भी काम शुरू करने में डरते हैं, कहीं यह पूरा ही न हुआ तो, कहीं इसका परिणाम गलत हुआ तो, आदि। भय मनुष्य का सशक्त मनोभाव है। इस पर काबू न हो, तो वह हमारी क्षमता को दबा देता है। तभी तो इसे अनिष्टकारी कहा जाता है। यह वह दुर्बलता है जो हमार अंदर जड़ जमा ले तो संपूर्ण व्यक्ितत्व को नष्ट कर देती है। भय हमें मन से ही नहीं, तन से भी रोगी बना सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह प्रमाणित हो चुका है कि मनुष्य के पेट में होनेवाला तेजाब डर से दुगुना हो जाता है। यहाँ तक कि कुछ लोग नींद में देखे गए डरावने सपने से भी इतना प्रभावित होते हैं कि यह स्राव बढ़ कर उन्हें बीमार कर देता है। कई बार बड़े लोग शैतान बच्चे को काबू में करने के लिए डराते हैं। ये डर बड़े हो जाने पर भी बच्चे का पीछा नहीं छोड़ते। कुछ बच्चे परीक्षा के डर से बीमार पड़ जाते हैं। इन डरों को बहलाकर या डाँट-डपट से पूरा नहीं किया जा सकता। न ही उन्हें नकारना कोई उपाय है। इनसे छुटकारा पाने के लिए अंदर के आत्मविश्वास को जगाना आवश्यक होता है। आत्मविश्वास जगाने के लिए अपने से बड़ी ताकत में विश्वास जरूरी है क्योंकि विश्वास में वह शक्ित है, जो हर डर को हरा सकती है। इसके बल पर डर की जड़ें ढीली पड़ने लगती हैं। विश्वास के साथ अपनी इच्छाशक्ित को जोड़ना जरूरी होता है। इसमें बढ़ने की क्षमता है, पर उसे बाहर निकालने की जरूरत होती है। जो कल्पना डराने में सफल होती है, उसी को डर भगाने के लिए प्रयोग में लाना चाहिए। जीवन में कठिन समय आते हैं पर निडर होंगे तो लड़ाई केवल एक शत्रु से रहेगी, पर कुछ सच्चे और कुछ काल्पनिक डर मिलकर मुकाबले को तिगुना बढ़ा देंगे, तब हार निश्चित हो जाएगी। मन से डर के नकारात्मक विचार निकालकर अपने को स्वतंत्र करना जरूरी है। डर की गिरफ्त से छूटने के लिए उसका स्थान प्रार्थना को देने से हमार मन के सार संदेहों का स्थान विश्वास ले लेगा और विश्वास के सहार हमारी आंतरिक शक्ित प्रस्फुटित होगी। अपने डर पर प्रभु को सौंपने से वे हाथ पकड़कर हर मुश्किल में सहारा देते हैं।

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