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पत्नीं मनोरमां देहि ..

नवरात्रि में श्री दुर्गासप्तशती का पाठ घरों में व्यक्ितगत और मंदिरों में सामूहिक रूप से होता है। मुझे ‘रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विशो जहि’ पाठ करते हुए अंतर्मन तक आनंद की अनुभूति होती है। यहाँ...

 पत्नीं मनोरमां देहि ..
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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नवरात्रि में श्री दुर्गासप्तशती का पाठ घरों में व्यक्ितगत और मंदिरों में सामूहिक रूप से होता है। मुझे ‘रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विशो जहि’ पाठ करते हुए अंतर्मन तक आनंद की अनुभूति होती है। यहाँ ‘रूप’ का अर्थ है आत्मस्वरूप का ज्ञान। ‘जय’ अर्थात मोह पर विजय मांगना है। वहीं यश का अर्थ है मोह पर विजय तथा ज्ञान प्राप्तिरूप का होना। ‘द्विशो जहि’ का अर्थ है- काम-क्रोध आदि शाक्तियों का नाश। अर्गलास्तोत्रम् के पच्चीस श्लोकों में देवी के विभिन्न रूपों, शक्तियों और उनके उपासकों की स्थिति का वर्णन है। देवी अनित्य हैं। हर श्लोक की दूसरी पंक्ित ‘रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि द्विशो जहि’ को दोहराया जाता है। चौबीसवां श्लोक है-ड्ढr ‘पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृतानुसारिणीम्।ड्ढr तारिणीं दुर्गसंसार सागरस्य कुलोद्भवाम्॥’ पहले 23 श्लोकों का सस्वर पाठ करते हुए मेरी जिह्वा यहाँ रुक जाती है। स्त्री होन के नाते मुझे अपने लिए पत्नी मांगना अटपटा लगता है। श्लोक में मन की इच्छानुसार चलने वाली मनोहर पत्नी की आकांक्षा है। वैसी पत्नी जो दुर्गम संसार सागर से तारने वाली तथा उच्च कुल में उत्पन्न हुई हो। एक बात अवश्य अचंभित करती है। दुर्गासप्तशती का पाठ स्त्री-पुरुष दोनों करते हैं। यहाँ कोई भेद-भाव नहीं। फिर श्लोक की रचना करने वाले ने पत्नियों द्वारा पति के गुणों का बखान क्यों नहीं किया? इस श्लोक की दो विशेषताएं हैं। प्रथम कि विवाह की आकांक्षा रखने वाले पुरुष भी गुणवंती पत्नी की माँग करते हैं। पर दूसरी विशेषता यह कि पत्नी मनोरम तो हो ही, पति के मन की इच्छानुसार चलने वाली भी हो और वह दुर्गम संसार सागर से तारने वाली हो। एक सुखी दाम्पत्य की आकांक्षा है। दोनों एक दूसरे के मनोनुकूल चलकर ही कठिनतम सांसारिक जीवन को जी सकते हैं। इस भवसागर को पार कर सकते हैं। स्त्री की विशेषता बताई गई है कि वह दुर्गम संसार सागर को पार करने में मददगार हो सकती है। जहाँ तक पत्नियों द्वारा पति मांगने का प्रश्न है, उसके बहुत से श्लोक हैं। दरअसल, हमारे मन में यही बात समाई है कि पार्वती न कठिनतम तपस्या करके शिव को प्राप्त किया था, सीता ने पुष्पवाटिका में राम की छवि देखकर गौरी की पूजा करते हुए कहा था -ड्ढr मोर मनोरथ जानहु नींके। बसहु सदा उर पुर सबही के॥ड्ढr कीन्हेऊँ प्रकट न कारण तेंहीं। अस कहि चरन गहे वैदेही॥ड्ढr विवाह के पूर्व हर लड॥की अपने लिए सुन्दर, सुशील वर और धनधान्य से पूर्ण घर की कामना करती है। इसलिए कि वह अपने घर को सुखमय बना सके। इस श्लोक का विशेष महत्व इसलिए भी है कि पुरुष भी घर को ही सुखी नहीं, वरन् अपने जीवन को सुखी बनाने वाली जीवन साथिन की आकांक्षा करता है।

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