ज्ञानरंजन का इलाहाबाद
अज्ञेय की पहली पारी के वैभव भरे उन दिनों में हमने उनको कई बार इलाहाबाद की सड़क, महात्मा गांधी मार्ग पर अधिकतम एक फर्लांग की चहलकदमी में देखा। हम बार-बार जाते और बहानों से लौटते और उनको देखते...
अज्ञेय की पहली पारी के वैभव भरे उन दिनों में हमने उनको कई बार इलाहाबाद की सड़क, महात्मा गांधी मार्ग पर अधिकतम एक फर्लांग की चहलकदमी में देखा। हम बार-बार जाते और बहानों से लौटते और उनको देखते थे। कुछ बार कॉफी हाउस के अंदर भी देखा। वह अगर गूंगे होते, तो महात्मा बुद्ध या महावीर स्वामी या प्रस्तर देवता मूर्ति की तरह लगते। वह प्राय: उन सड़कों की तरफ मुड़ते थे, जो दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की तरफ आती थीं। ये इलाहाबाद की विशाल सिविल लाइन्स के सबसे साफ-सुथरे, खामोश और आच्छादित मार्ग थे। शायद वे ड्रमंड रोड की तरफ जाते थे। जाहिर है कि अज्ञेय इन्हीं तरह के मार्गों पर चल-फिर सकते थे।..कई बार अज्ञेय का खादी का कुरता गर्दन के पास झीना या फटा भी होता था, पर वह कॉफी हाउस से निकलकर एक मंद हाथी की तरह चलते हुए नैसर्गिक दर्प से भरी छवि बिखेरते थे।
उनके बिल्कुल आजू-बाजू शायद ही कोई होता। रघुवंश जी, केशव भाई, विपिन कुमार अग्रवाल या रामस्वरूप जी, कोई नहीं। इनके अलावा और लोग भी होते थे। वे पीछे-पीछे महाजन की लीक पर अनुयायी की तरह चलते थे। साहीजी को नहीं देखा मैंने पीछे कभी। शायद अज्ञेय किसी को साथी, बराबरी का दर्जा नहीं देते थे। इसलिए मुझे आज भी यही लगता है कि अज्ञेय के भक्त हुए, उनके झंडाबरदार हुए, उनको गहरा सम्मान देने वाले हुए, पर अज्ञेय के मित्र थे इस असार संसार में, इसका मुझे कोई अता-पता नहीं है।
कबाड़खाना ब्लॉग से