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विवादों में भी निखरते रंग

एम. एफ. हुसेन की कला को लेकर कभी वाह और आह करने वाले प्रशंसकों के लिए राहत की बात है। कला के नासमझों द्वारा उन पर सांप्रदायिक का आरोप लगा कर उन्हें निर्वासन के लिए मजबूर करने वालों के लिए दिल्ली...

 विवादों में भी निखरते रंग
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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एम. एफ. हुसेन की कला को लेकर कभी वाह और आह करने वाले प्रशंसकों के लिए राहत की बात है। कला के नासमझों द्वारा उन पर सांप्रदायिक का आरोप लगा कर उन्हें निर्वासन के लिए मजबूर करने वालों के लिए दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश करारा तमाचा। कोर्ट ने याचिका दायर करने वालों को यह कह कर फटकारा कि कला इनकी समझ से बाहर है। अब यह माना जा सकता है कि हुसेन के लिए देश में रहने का रास्ता खुल गया है। भारत के सबसे महंगे इस कलाकार के काम को कभी भी किसी ने हिन्दू-मुसलमान के नजरिए से नहीं देखा। वे खाटी हिन्दुस्तानी कलाकार हैं। उनमें परम्परा-आधुनिकता, लोक और शास्त्र सबके सब भारतीय रंग मौजूद हैं। कट्टरपंथी हिन्दुओं द्वारा जब तक उन्हें हिन्दू विरोधी नहीं कहा गया, तब तक उनके मुसलमान होने की किसी को याद तक नहीं आई। असल में हुसेन कबीर हैं, जिनके जाति धर्म का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। फक्कड़ हैं, जिनके सूफीयाना अंदाज की तह को नहीं छुआ जा सकता। बावजूद इसके वे विवादों में घसीट लिए जाते हैं। वे चुप रहें तो भी विवाद खड़े हो जाते हैं। उनका मौन विवादित है। उन्होंने अपनी हिन्दी में लिखी आत्मकथा ‘पंढारपुर का एक लड़का’ में इस मौन को कई बार रखांकित किया है। बानवे वसंत जी चुके हुसेन का जीवन बचपन से ही संघर्ष भरा रहा है। वे जब डेढ़ साल के थे, तो उनकी मां जनब मर गई थीं। पत्नी की मौत के बाद उनके पिता फिदा दूसरी शादी करके इंदौर में रहने आ गए। यहीं उनकी स्कूली पढ़ाई हुई। जब वे बीस वर्ष के हुए, तो हुसेन मुंबई आ गए। उन्होंने वहां जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाखिला लिया।1में उन्होंने शादी कर ली। परिवार चलाने के लिए सिनेमा के होर्डिग्स बनाने लगे। एक फुट कैनवास की पेंटिंग के सिर्फ पांच-छ: आने ही मिलते थे। कई बार तो उन्हें पैसे भी नहीं मिलते थे। धन की कमी के चलते उन्होंने खिलौने की फैक्ट्री में खिलौनों की डिााइनिंग भी की। इस बीच वे पेंटिंग्स बनाते रहे। विभाजन के बाद वे भारत आ गए। 1में पहली बार बाम्बे आर्ट सोसायटी की वार्षिक प्रदर्शनी में उनकी पेंटिंग सुनहरा संसार प्रदर्शित हुई। इसी दौरान फ्रांसिस सूजा ने जब प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप बनाया, तो हुसेन भी उसमें शामिल हो गए। 1से 10 के बीच देश में कई प्रदर्शनियों में उनका काम सामने आया और उनकी पहचान बनने लगी। 1में उन्होंने चीन की यात्रा की। उनकी पहली एकल प्रदर्शनी 1में ज्यूरिख में हुई। इसके बाद पूर यूरोप और अमेरिका में उनका काम दिखने लगा। 1में उन्हें पद्म विभूषण से भी नवाजा गया। इसी समय उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘थ्रू दि आक्ष ऑफ ए पेंटर’ बनाई। इस फिल्म को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया और उसे गोल्डन बियर एवार्ड भी मिला। इसके बाद उनके घोड़ों (घोड़ों पर उनकी पेंटिंग सीरीा) की ही तरह उनका ब्रुश भी नहीं थमा। आज वे देश के सबसे महंगे कलाकार हैं। हाल ही में क्रिस्टीस नीलामी में उनका एक कैनवास दो मिलियन डॉलर का बिका। उनके कला में योगदान के कारण ही उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया। अपना कार्यकाल खत्म होने के बाद संसद की स्मृतियों पर उन्होंने एक सीरीा पार्लियामेंट प्रोफाइल बनाई। माधुरी दीक्षित पर उनकी दीवानगी किसी से छिपी नहीं है। माधुरी पर पेंटिंग सीरीा बनाने के साथ उनको लेकर ‘गजगामिनी’ फिल्म भी बनाई। फिल्म पिट गई। फिल्म न चलने पर हुसेन ने कहा था कि उनके घोड़े जब तक दौड़ते रहेंगे, तब तक वे इस तरह की फिल्में नफा-नुकसान सोचे बिना बनाते रहेंगे।ं

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