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छोटे शहर के बड़े लोग

छोटे शहर में दो तरह के बड़े लोग हैं। पैदाइशी और नुमायशी। काम से नाम कमाने वालों, समाज सेवक, व्यापारी, लेखक, कलाकार जसों को कोई घास तक नहीं डालता है। उल्टे, पैदाइशी फरमाते हैं- ‘प्रचार का भूखा है...

 छोटे शहर के बड़े लोग
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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छोटे शहर में दो तरह के बड़े लोग हैं। पैदाइशी और नुमायशी। काम से नाम कमाने वालों, समाज सेवक, व्यापारी, लेखक, कलाकार जसों को कोई घास तक नहीं डालता है। उल्टे, पैदाइशी फरमाते हैं- ‘प्रचार का भूखा है कम्बख्त। कभी पानी बचाने की बात करता है, कभी पेड़।’ उन्हें गर्व है कि ताउम्र उन्होंने धेले भर का काम नहीं किया है। पूरी जिन्दगी पतंगबाजी में बिता दी। अब भी पेंच लड़ा रहे हैं। खानदानी पतंगबाज हैं वे। अंग्रेज वफादारी के बदले उनके बड़े बुजुर्गो को जमीन दे गए थे। उसे बेचकर उन समझदारों ने शहर में दुकानें, हवेलियां बनवाईं। इससे जाहिर है कि काम से कतराना और आरामतलबी एक लम्बी पारिवारिक परम्परा है पतंगबाज की। खेती-किसानी, मेहनत-मशक्कत, सिर्फ घटियापन का लक्षण है, किराया खाना बड़प्पन का। कुछ दोस्तों का कहना है कि यह चरखी, सद्दी, मांझा लेकर ही पैदा हुए थे। वह बस इतना मानते हैं कि जब से होश सम्भाला है वह सिर्फ पतंग और पैसे उड़ा रहे हैं। वह ऐसों से खफा हैं जो अफवाहें और गप्पें उड़ाते हैं। ऐसा नहीं है कि सब पैदाइशी बड़े सिर्फ पतंग ही उड़ाते हैं। यह सच है कि ज्यादातर वकीलों का लड़का वकील और डॉक्टर का डॉक्टर बनता है। दोनों के लिए इम्तिहान पास करना जरूरी है। कुछ पढ़ाई-लिखाई तो हो ही जाती है इस चक्कर में। अगर नकल भी की तो उसके लिए अक्ल की दरकार है। इनके मुकाबले, नेता-पुत्र का नेता बनना आसान है। यों उसे भी जनसेवा का नाटक तो करना ही है। अगर कामयाब रहा, तो चैन की बंशी बजाता है। स्पष्ट है कि अधिकतर बड़े अपने नहीं परिवार के बूते बड़े बने हैं। नुमाइशी बड़ों पर यह कथन लागू नहीं है। वह अपने दो पैरों पर खड़े हैं। श्रम-परिश्रम करते हैं। कहीं डकैती डलवाई, किसी के बच्चे को उठावाया। फिरौती ऐंठी। किसी का पैर तोड़ा, किसी का सिर। वह अपने दम-खम पर बड़े बने हैं। बस उन्हें कानून की इनायत चाहिए। इसीलिए वह वर्दीवालों का खास ख्याल रखते हैं। वह माहवारी वसूलते हैं तो क्या हुआ। दस्तूरी भी पेश करते हैं अफसर-सिपाही को। ट्रैफिक के पुलिसिए पर आते-ााते सौ डेढ़ सौ रुपये न्यौछावर करना उनकी नियमित दिनचर्या है। वह भी उनकी ताक में रहता है। गाड़ी देखते ही ऐसा कड़क सैल्यूट ठोकता है कि चौराहा गूंजे। एहसास हो लोगों को कि किसी नामवर की सवारी गुजरी है। आज उन्हीं का नाम है जो खानदान की दौलत पर जीएं या कानून तोड़ने के कारनामे अंजाम दें। हमें सिर्फ अपने शहर का पता है। कौन जाने, शायद दूसर छोटे-बड़े शहरों, महानगरों का भी यही आलम हो।ड्ढr ं

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