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थोड़ी चोट, थोड़ी कचोट

ऐसे ही एक अलक्षित साहित्यकार हैं- विनोद शर्मा, जिनकी सांसों में समूचा बंगाल धड़कता है। लंबे समय से बंगाल में रहते हुए, रेलवे में नौकरी करते हुए, रेल मजदूर यूनियन में सक्रिय रहते हुए विनोद दो दशकों से...

 थोड़ी चोट, थोड़ी कचोट
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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ऐसे ही एक अलक्षित साहित्यकार हैं- विनोद शर्मा, जिनकी सांसों में समूचा बंगाल धड़कता है। लंबे समय से बंगाल में रहते हुए, रेलवे में नौकरी करते हुए, रेल मजदूर यूनियन में सक्रिय रहते हुए विनोद दो दशकों से हिंदी में व्यंग्य रचनाएं लिखते आ रहे हैं। उनके चार व्यंग्य संग्रह- ‘मेरी मर्जी’, ‘गठबंधन’, ‘महंगाई बेचता हूं’ और ‘सरकार सोचती है’ छप चुके हैं। विनोद की व्यंग्य रचनाएं बांग्ला में भी आई हैं। बांग्ला में उनकी व्यंग्य रचनाओं का एक संकलन भी ‘जातीय हाटू’ शीर्षक से छप चुका है। उनके व्यंग्य समकाल की छोटी-बड़ी मानवीय त्रासदी को पूरी मार्मिकता के साथ उपस्थित करते हैं। ‘साबरमती के संत हमने कर दिया कमाल’ में गांधी के विचारों से सरकार व जनता के दूर जाने पर व्यंग्य करते हुए विनोद कहते हैं, ‘सरकार ने गांधी को आम आदमी तक पहुंचाने के उद्देश्य से गांधी के चित्रों से युक्त पांच सौ रुपये के नोट छपवाए। आम आदमी भला गांधी को इससे कैसे पाए? अगर महीने की पहली तारीख एकाध को मिल जाते हैं, तो अगले ही दिन राशन, किराना, दूध, बच्चों की फीस, मकान का किराया आदि में गांधी आम आदमी की पहुंच से फिर बाहर चले जाते हैं।’ विनोद की व्यंग्य रचनाओं में चोट है, कचोट है, पर क्रूरतापूर्ण-निर्ममतापूर्ण प्रहार नहीं है, क्योंकि ये प्रहार मानवीय आवेगों और भावों को ही तहस-नहस कर देते हैं। सरकारों की कार्यशैली से खिन्न होकर ‘सरकार सोचती है’ व्यंग्य रचना में वे कहते हैं, ‘सरकार पांच दशकों से भी अधिक समय से देश की जनता की भलाई के बारे में सोच रही है। उसकी सोच का परिणाम 50 साल बाद भी नजर क्यों नहीं आता, यह तो सरकार ही जाने पर संतोष की बात है कि सरकार ने अभी सोचना बंद नहीं किया है।’ सरकार चलाने वाले और सत्ता में बैठे लोग किस तरह आम लोगों को मूर्ख बनाते रहे हैं, इसकी झलक विनोद की एक रचना की इन पंक्ितयों में हम बखूबी पा सकते हैं- ‘हर साल पहली अप्रैल को मूर्ख दिवस मनाया जाता है। मेरे दिल में ख्याल आता है कि यह दिवस हमारे देश के लिए ही बनाया गया है। वह देश जहां की जनता को 50 वर्षों से मुट्ठी भर लोग मूर्ख बनाते आ रहे हैं।’ सरकार में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों पर भी व्यंग्य करने में वे नहीं हिचकते। बांग्ला में प्रकाशित विनोद की व्यंग्य पुस्तक ‘जातीय हाटू’ में इसी शीर्षक की रचना में उन्होंने कहा है, ‘हमारे देश में इतना पॉपुलर कोई भी अंग नहीं हुआ, जितना घुटना हुआ। अगर कुछ नहीं हुआ तो केवल इतना कि जिस दिन घुटने का ऑपरेशन हुआ उस दिन को न तो घुटना दिवस घोषित किया गया न ही राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा हुई। सब कुछ राष्ट्रीय स्तर का हुआ। आखिर था भी तो वह राष्ट्रीय घुटना।’ड्ढr विनोद शर्मा की नजर में आम लोग हैं तो मंचमुखी भी। वे मंच से नहीं, बल्कि मंच के बगल में खड़े होकर उन्हीं की बात बोल लेने की अद्भुत सामथ्र्य रखते हैं और जब वे मंचमुखी लोगों पर व्यंग्यवाण छोड़ते हैं तो उन्हें सरपट भागना पड़ता है। श्री शर्मा एक रचना में कहते हैं, ‘ कुछ जीव इस धरा पर ऐसे हैं जिन्हें जीने के लिए और विद्यमान रहने के लिए एक मंच चाहिए। जल के बिना जैसे मछली तड़पती रहती है, मछली तो जल के बिना मर जाती है, ये जीव मरते नहीं, पर मंच के बिना तड़पते रहते हैं।’ विनोद शर्मा के व्यंग्य पढ़ते हुए हमें स्वातंत्रोत्तर भारत खास तौर पर 20वीं शताब्दी की सांध्य वेला और 21वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षो के भारतीय समाज की यथार्थ स्थिति का परिचय भी सहज मिल जाता है। देश में जब धर्माधता फैलानेवाली ताकतों का जोर बढ़ा तो ‘कुबेर पूजन’ शीर्षक रचना के जरिए विनोद ने उन ताकतों पर व्यंग्य करने के साथ ही देश की मौजूदा दशा का एक चित्र भी आंखों के सामने उपस्थित कर दिया- ‘पूरे देश में धार्मिक वातावरण बन रहा है। कहीं घोटाला मिटाओ यज्ञ, तो कहीं चारा हजम तप, तो कहीं कुर्सी बचाओ होम तो कहीं तिहाड़ मोक्ष मंत्र, कहीं सीबीआई सलटाओ कथा तो कहीं आयकर शांति यज्ञ, कहीं मंत्री पद प्राप्ति यज्ञ तो कहीं मंडल प्रकरण-मंगल पूजन, कहीं फेरा उलंघन मुक्ित मंत्र धड़ल्ले से आयोजित किए जा रहे हैं। आयोजनों के आकार-प्रकार वस्तुत: चार्जशीट के रूपरंग पर निर्भर करते हैं। सभी आयोजनों में धन का पूरा प्रयोग किया जाता है क्योंकि ऐसे आयोजनों का आयोजन या तो धन योग से होता है या फिर धन के योग के लिए होता है।’ विनोद के व्यंग्य उनके व्यंग्यकार स्वभाव को, उनकी रुचि व दृष्टि को जानने-समझने की पर्याप्त सहूलियत भी देते हैं। वे भविष्य में भी व्यंग्य विधा को काफी-कुछ देंगे, यह कामना सहज स्वाभाविक है।ं

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