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प्रक्रिया पर सवाल

केंद्र सरकार की कोशिश यह थी कि वह अपने कार्यकाल में लोकपाल की नियुक्ति कर ले, लेकिन अब यह इच्छा पूरी नहीं होती दिख रही है। प्रख्यात न्यायविद फली नरीमन के लोकपाल सर्च पैनल में शामिल होने से इनकार के...

प्रक्रिया पर सवाल
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 04 Mar 2014 09:03 PM
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केंद्र सरकार की कोशिश यह थी कि वह अपने कार्यकाल में लोकपाल की नियुक्ति कर ले, लेकिन अब यह इच्छा पूरी नहीं होती दिख रही है। प्रख्यात न्यायविद फली नरीमन के लोकपाल सर्च पैनल में शामिल होने से इनकार के बाद सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश केटी थॉमस ने भी इस पैनल की अध्यक्षता छोड़ दी है। नया अध्यक्ष लोकपाल चयन समिति नियुक्त कर सकती है, जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और प्रतिष्ठित न्यायविद होते हैं। समिति फिर से कोई फैसला करे, यह मुमकिन नहीं लगता, क्योंकि प्रधानमंत्री म्यांमार की यात्रा पर हैं और आम चुनावों की घोषणा किसी भी दिन हो सकती है। इससे यही लगता है कि सरकार की जल्दबाजी के बावजूद लोकपाल का मामला अनिश्चित पड़ा रहेगा और सरकार के लिए आरोप व विवाद छोड़ जाएगा। नरीमन और थॉमस, दोनों ने लोकपाल की चयन प्रक्रिया पर ऐतराज जताया है।

नरीमन के हिसाब से चयन प्रक्रिया ऐसी है कि उसमें ज्यादा काबिल, साहसी व स्वतंत्र उम्मीदवार नहीं चुने जा सकेंगे। थॉमस का कहना है कि नरीमन के इनकार के बाद जब उन्होंने प्रक्रिया की गौर से जांच की, तो लगा कि इस पैनल में रहने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि पैनल का काम सिर्फ नामों की सिफारिश करना है। उन्हें यह भी आपत्ति थी कि लोकपाल के लिए अजिर्यां आमंत्रित की गई थीं और चुनाव इन्हीं में से करना था। इस घटनाक्रम से जाहिर होता है कि लोकपाल की नियुक्ति के मामले में ज्यादा सोच-विचार की जरूरत थी और आम सहमति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने चयन समिति में पीपी राव को रखने का विरोध किया था और उनके विरोध को बहुमत के आधार पर नजरअंदाज कर दिया गया था। भले ही तकनीकी रूप से यह सही हो, लेकिन इसी स्तर पर आम सहमति बनाने की कोशिश न करने से लोकपाल चयन की प्रक्रिया विवादास्पद हो गई और ऐसा लगने लगा कि सरकार अपनी मंशा थोपना चाहती है।

नरीमन के इनकार और थॉमस के इस्तीफे से ऐसा आभास होता है कि सरकार स्वतंत्र लोकपाल की जगह अपने लिए अनुकूल लोगों को इसमें रखना चाहती है। हो सकता है कि सरकार की मंशा ऐसी न हो, लेकिन यह तो साफ लगता है कि सरकार ने ज्यादा व्यापक विचार-विमर्श और आम सहमति को महत्वपूर्ण नहीं माना। लोकपाल का विचार भारतीय राजनीति में आए 45 साल से ज्यादा हो गए और इसी बीच लोकपाल के लिए कई संसदीय कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं। अगर इतने साल बाद कोई काम हुआ है, तो सरकार को चाहिए था कि वह काम ठीक से हो, ताकि लोकपाल बनने के पहले ही विवादों में न आ जाए। चूंकि विवादों का सिलसिला शुरू हो ही गया है, इसलिए अच्छा यही होगा कि पूरी प्रक्रिया को अगली सरकार के लिए छोड़ दिया जाए।

पिछले दो-तीन सालों में हुए आंदोलनों ने कुछ ऐसा माहौल बनाया है कि लोकपाल कोई सुपरमैन जैसा किरदार होना चाहिए और ऐसा लोकपाल भ्रष्टाचार की अचूक दवा है। व्यवहार में ऐसा होना मुश्किल है, लेकिन लोकतांत्रिक प्रणालियों और मर्यादाओं के बीच ऐसी संस्था काफी प्रभावशाली हो सकती है। यह तभी हो सकता है, जब इस संस्था का गठन जिम्मेदारी और समझदारी के साथ किया जाए और उसकी स्वायत्तता भी सुनिश्चित की जाए कि वह प्रभावशाली तो हो, साथ ही जवाबदेह हो। लोकपाल बिल पास करने से लेकर अब तक जैसी जल्दबाजी इस प्रक्रिया में दिखी है, उससे ये उद्देश्य पूरे नहीं होते, बल्कि इस मामले को फिलहाल यहीं विराम देने से बात और ज्यादा नहीं बिगड़ेगी।

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