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हमारी चुनौती तरक्की की नहीं, स्पर्धा की है

उनके नाम करीब 50 से भी अधिक डॉक्टरेट, 1,500 से भी ज्यादा रिसर्च-पेपर और कोई 60 किताबें हैं, फिर भी विज्ञान को कुछ नया देने का वह भरोसा दिलाते हैं। 79 साल की आयु और खाते में ढेरों उपलब्धियों के बावजूद...

हमारी चुनौती तरक्की की नहीं, स्पर्धा की है
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 08 Feb 2014 09:21 PM
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उनके नाम करीब 50 से भी अधिक डॉक्टरेट, 1,500 से भी ज्यादा रिसर्च-पेपर और कोई 60 किताबें हैं, फिर भी विज्ञान को कुछ नया देने का वह भरोसा दिलाते हैं। 79 साल की आयु और खाते में ढेरों उपलब्धियों के बावजूद वह तड़के साढ़े चार बजे उठते हैं और लैब जल्दी भागते हैं। इसलिए तो प्रोफेसर चिंतामणि नागेश रामचंद्र राव को विज्ञान जगत डॉ. साइंस के नाम से पुकारता है। सॉलिड-स्टेट व स्ट्रक्चरल केमेस्ट्री के केमिस्ट सीएनआर राव प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं। उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। प्रवीण प्रभाकर ने उनसे बात की:

बीते साढ़े छह दशक में विज्ञान-तकनीकी के क्षेत्र में भारत को आप कहां पाते हैं?
साढ़े छह दशक तो ज्यादा हो गया। आजादी के बाद संभलने में वक्त लगा। वैसी स्थिति में किसी भी देश को समय लगता है। उसके बाद के 30-35 साल ऐसे रहे, जब विज्ञान से जुड़ी चुनौतियों और समस्याओं से निपटने के लिए संसाधन जुटाने पड़े। 70 तक कमोबेश स्थिति संभल गई थी। उधर, दुनिया भी बदलने लगी, ग्लोबलाइजेशन का दौर भी शुरू हो गया। इन सबका प्रभाव साइंस और टेक्नोलॉजी पर पड़ा। हमारे देश पर भी पड़ा। लेकिन अब चुनौतियां पहले जैसी नहीं हैं। अब प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। हम अच्छा कर रहे हैं, तो दूसरे बेहतर कर रहे हैं। उनसे पार पाना होगा। इसलिए हमारी तैयारियां व क्षमताएं पहले से बेहतर होनी चाहिए। हमें फोकस करना होगा कि किन-किन समस्याओं पर काम करना है।

हम दूसरे देशों की तुलना में विज्ञान और तकनीकी को दिशा देने में पूरी तरह से नाकाम क्यों हुए? 
पूरी तरह से तो नाकाम नहीं हुए हैं। अंतरिक्ष-विज्ञान के क्षेत्र में हमें सफलताएं मिली हैं। बीते दस वर्षों में नैनो-साइंस में खूब काम हुए। इस क्षेत्र में भारत दुनिया का तीसरा बड़ा महत्वपूर्ण देश बन चुका है। एनर्जी और डिजीज बॉयोलॉजी में भी हम आगे हैं। क्रायोजेनिक इंजन बना, पीएसएलवी लांच हुए, वगैरह-वगैरह। ऐसा इसलिए, क्योंकि साइंस और टेक्नोलॉजी में फंडिंग ठीक-ठाक हुई, पर इससे भी इनकार नहीं कि कई वैज्ञानिक चिंताएं बरकरार हैं। जैसे, अगले 15-20 वर्षों में हमें अधिक ऊर्जा की जरूरत होगी, कहां से लाएंगे? जाहिर है कि ऊर्जा के वैकल्पिक-स्रोतों पर काम शुरू होना चाहिए। जब हम ज्ञान आधारित उद्योग की बात करते हैं, विशुद्ध विज्ञान की बात करते हैं और इनमें दूसरे देशों से स्पर्धा करते हैं, तब हमें कमी का अंदाजा लगता है। और यह कमी इसलिए है कि देश में यूनिवर्सिटियों की स्थिति अच्छी नहीं है। बच्चे अच्छी यूनिवर्सिटी में एडमिशन चाहते हैं। अगर 50 अच्छे संस्थान हों, तो प्रतिभावान छात्र वहां पढ़ पाएंगे और ज्यादा रिसर्च होंगे। इसी तरह, हमें रिसर्च के लिए भी सही क्षेत्र देखना होगा और वहां निवेश करना होगा। वरना विज्ञान के छात्र किसी और क्षेत्र में जाते रहेंगे। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं कि विज्ञान में निवेश को और बढ़ाना चाहिए।

आप विशुद्ध विज्ञान पर जोर देते हैं, पर इनोवेशन भी तो समय की मांग है।

साइंटिफिक एडवाइजरी कौंसिल ने प्रधानमंत्री को जो रिपोर्ट सौंपी है, उसमें भारत में इनोवेशन पर विशेष प्रकाश डाला गया है। मैं तो यह मानता हूं कि प्योर साइंस, टेक्नोलॉजी और इनोवेशन आपस में जुड़े हुए हैं और इनोवेशन तो किसी भी क्षेत्र में किया जा सकता है। इसके लिए सरकारी सहयोग के अलावा सामाजिक प्रोत्साहन चाहिए।

बीते वर्षों में विज्ञान-तकनीकी व उद्योग को जोड़ा गया है। क्या इससे लाभ हुआ?

मिला है। अच्छी बात है कि दोनों एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं। पर इंडस्ट्री को विज्ञान में अधिक रुचि दिखानी चाहिए। उन्हें रिसर्च में अधिक निवेश करने की जरूरत है। उन्हें उस मुकाम तक जाना होगा, जहां अमेरिका जैसे देश हैं, जहां की इंडस्ट्री 50 फीसदी तक साइंटिफिक रिसर्च में मदद करती है।

समाज तक विज्ञान का पूरा लाभ नहीं पहुंचता है।
यह सिर्फ वैज्ञानिकों से नहीं हो सकता। यह मसला शिक्षा से भी जुड़ा है। यह मसला औरतों की सामाजिक स्थिति से भी जुड़ा हुआ है। शिक्षा में जब निवेश हो, तो स्त्री-शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि महिलाएं ही परिवार और समाज का प्रबंधन करती हैं। यहीं से बदलाव आएगा। कुछ ऐसे भी वैज्ञानिक काम हैं, जो समाज की भलाई के लिए हैं, लेकिन जिन्हें कुछ कारणों से विशेष नहीं माना जाता है। यह गलत है। दूषित पानी पीने से अपने यहां अधिक लोग बीमार पड़ते हैं। इसके बचाव में कई टेक्नोलॉजी हैं। आगे भी काम हो सकते हैं। प्राइवेट और सरकारी सेक्टर को वैज्ञानिकों के साथ मिलकर इस तरफ काम करना होगा।

आपकी ऑटोबायोग्राफी क्लाइंबिंग द लिमिटलेस लैडर-ए लाइफ इन केमेस्ट्री  में हिंदी पट्टी से प्रेम जाहिर होता है।
हां, मुझे उत्तर भारत और वहां के लोग अच्छे लगते हैं। वे बड़ी गर्मजोशी से मिलते हैं, मिलनसार होते हैं। मेहनत करने से पीछे नहीं हटते। मैं बीएचयू में पढ़ा हूं। यही नहीं, मैं कानपुर में भी रह चुका हूं। वहां रहते हुए मैंने बेंगलुरु को कभी मिस नहीं किया। आईआईटी कानपुर को काफी इंजॉय किया।

आपके प्रेरणा-स्रोत कौन रहे?
मां। वही मेरी टीचर थीं। मैं प्राइमरी स्कूल नहीं गया। उनसे ही सीखा। (हंसते हुए..) स्कूल की बोरियत से उन्होंने बचा लिया। पेशेवर जिंदगी में दो वैज्ञानिकों से मैं बहुत प्रभावित हुआ- जेसी बोस और सीवी रमन। अमेरिकी वैज्ञानिक लिनस पॉलिंग महान थे। काफी पहले मैंने उनकी किताब द नेचर ऑफ द केमिकल बॉन्ड पढ़ी। एचसी ब्राउन और नेविल मॉट से भी खासा प्रभावित हुआ।

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