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हमारे प्रधानमंत्री, इतिहास की नजर में

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि वह अपने कार्यकाल के आकलन का काम इतिहास और इतिहासकारों पर छोड़ते हैं। चलिए एक कोशिश करते हैं, पिछले सभी प्रधानमंत्रियों के मुकाबले उनके रिकॉर्ड को परखने की। भारत के...

हमारे प्रधानमंत्री, इतिहास की नजर में
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 10 Jan 2014 07:14 PM
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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि वह अपने कार्यकाल के आकलन का काम इतिहास और इतिहासकारों पर छोड़ते हैं। चलिए एक कोशिश करते हैं, पिछले सभी प्रधानमंत्रियों के मुकाबले उनके रिकॉर्ड को परखने की। भारत के पहले और सबसे ज्यादा वक्त तक रहे प्रधानमंत्री से शुरू करें। जवाहरलाल नेहरू का कार्यकाल तीन साफ-साफ हिस्सों में बांटा जा सकता है : 1947-52, 1952-1957 और 1957-1964। उनकी सरकार को असाधारण चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उन्हें विभाजन की त्रासदी के बाद सामाजिक और धार्मिक शांति स्थापित करनी पड़ी, शरणार्थियों को बसाना था, आर्थिक विकास की प्रक्रिया शुरू करनी थी, एक बंटे हुए विविधतापूर्ण देश में राष्ट्रीय एकता स्थापित करनी थी। नेहरू ने इन कामों को बहुत कुशलता से किया, जिसमें उनके प्रतिभाशाली सहयोगियों ने मदद की। इन सहयोगियों में सरदार पटेल और बीआर अंबेडकर भी थे। 1950 में पटेल की मृत्यु हो गई। अंबेडकर ने 1951 में मंत्रिमंडल छोड़ दिया। साल 1952 का आम चुनाव नेहरू ने चार मुख्य मुद्दों पर लड़ा। दो मुद्दे उन्हें खालिस वामपंथ से अलग करते हैं। पहला, बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना और दूसरा, ज्यादा समानता को धीरे-धीरे समाज में लाना। दो अन्य मुद्दे उन्हें खालिस दक्षिणपंथ से अलग करते हैं। पहला, अल्पसंख्यकों को बराबर के अधिकार और बहुसंख्यक समाज के निजी कानूनों को बदलकर हिंदू महिलाओं को ज्यादा सम्मान और स्वतंत्रता देने की कोशिश। 1952 से 57 तक का दौर नेहरू के कार्यकाल का सबसे अच्छा दौर है। एक लोकतांत्रिक बहुलतावादी आधुनिक समाज की नींव इसी दौर में पड़ी, एक स्वतंत्र विदेश नीति बनाई गई।

विज्ञान और तकनीक पर आधारित आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया गया। अगर नेहरू ने इस दौर के बाद सत्ता छोड़ दी होती, तो हम उन्हें अपने इतिहास के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री की तरह याद करते। मौजूदा प्रधानमंत्री की तरह  उनके आखिरी कुछ साल में भ्रष्टाचार (मूंदड़ा कांड), सत्ता का दुरुपयोग (केरल सरकार की बर्खास्तगी) और युद्ध में हार (चीन के खिलाफ 1962 में) देखनी पड़ी। कार्यकाल की लंबाई के नजरिये से इंदिरा गांधी नेहरू के बाद दूसरे नंबर पर आती हैं। वह 1966 से 77 और 1980 से 84 तक प्रधानमंत्री रहीं। उनकी उपलब्धियों में विज्ञान और तकनीक को प्रोत्साहन देना और बांग्लादेश संकट के दौरान दृढ़ नेतृत्व प्रदान करना गिनाई जा सकती है। अपने पिता की तरह वह भी व्यापक और समन्वयमूलक नजरिया रखती थीं। वह धर्म और भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करती थीं, इसीलिए दक्षिण भारत में उनका काफी सम्मान था।

इंदिरा गांधी कट्टर राष्ट्रभक्त थीं, लेकिन लोकतंत्र के प्रति उनका विश्वास ढुलमुल था। नेहरू के वक्त में प्रशासनिक सेवाओं और न्यायपालिका की स्वायत्तता को सावधानी से बचाया गया। इंदिरा गांधी ने प्रतिबद्ध नौकरशाहों और न्यायाधीशों की अवधारणा सामने रखी। सन 1969 तक कांग्रेस की क्षेत्रीय इकाइयां बहुत मजबूत थीं और उनमें आंतरिक लोकतंत्र था। इंदिरा गांधी ने उसे एक पारिवारिक उद्यम बना दिया। उनकी तानाशाही प्रवृत्तियों की वजह से आपातकाल लगाया गया, जिसमें विरोधी नेताओं को जेल में डाला गया। प्रेस सेंसरशिप लागू की गई और आम नागरिकों की स्वतंत्रता को स्थगित कर दिया गया। इंदिरा गांधी की दूसरी बड़ी विफलता आर्थिक सुधार न करना था। सन 1950 के दशक में बड़े भारतीय उद्योगपति भी चाहते थे कि आर्थिक विकास में सरकार आगे आए। 1960 के दशक के अंत तक एक ठोस औद्योगिक आधार बन गया था और लाइसेंस राज को खत्म करने और निर्यात बढ़ाने का वक्त आ गया था। पर इंदिरा गांधी ने और ज्यादा राष्ट्रीयकरण कर दिया।

इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह के बीच तीन भारतीय प्रधानमंत्रियों ने अपना कार्यकाल पूरा किया। राजीव गांधी ने शुरुआत बहुत अच्छी की। उन्होंने युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया, नई तकनीक को तरजीह दी और अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे खोलना शुरू किया। उन्होंने असम, मिजो और पंजाब के विद्रोहियों के साथ शांति समझौते किए। पर अपने कार्यकाल के बीच में ही वह लड़खड़ा गए। निजी कानूनों में सुधार करने वाले अंबेडकर और नेहरू चाहते थे कि इन सुधारों को सही वक्त पर मुसलमानों तक भी पहुंचाया जाए। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सही मौका प्रदान कर दिया था, लेकिन 400 से ज्यादा सांसद और एक प्रगतिशील मुस्लिम मंत्री आरिफ मोहम्मद खान के होते हुए राजीव गांधी दकियानूसी ताकतों के सामने झुक गए और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उलट दिया। उसी वक्त उन्होंने अयोध्या के मंदिर का ताला भी खुलवा दिया, और देश को दो दशकों की सांप्रदायिक उथल-पुथल में धकेल दिया।

अगर राजीव गांधी की 1991 में हत्या न हुई होती, तो शायद वह दूसरी बार प्रधानमंत्री बन जाते। तब वह क्या करते, यह बताना मुश्किल है। उस वक्त प्रधानमंत्री बने नरसिंह राव तमाम उम्मीदों से आगे निकल गए। उन्होंने उद्यमिता को प्रोत्साहन दिया। अर्थव्यवस्था को विदेशी प्रतिस्पर्धा के लिए और निर्यात को खोल दिया। उसी वक्त उन्होंने भारत की विदेश नीति में परंपरागत पश्चिमी झुकाव को दुरुस्त करके बेहतर संबंध बनाए। उनकी कमियों में हिंदू कट्टरपंथियों को प्रोत्साहन देना और संसद में वोटों की खरीद-फरोख्त को मंजूर करना है। अटल बिहारी वाजपेयी पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। वाजपेयी ने गठबंधन की राजनीति को कुशलता से निभाया और आर्थिक उदारीकरण को आगे बढ़ाया, लेकिन वह कई मौकों पर कट्टरवादियों को रोकने में नाकाम रहे। अगर वह 2002 में मोदी को हटा देते, तो अपनी सांविधानिक जिम्मेदारी बेहतर ढंग से निभाते।

जिन प्रधानमंत्रियों ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया, उनमें लालबहादुर शास्त्री उल्लेखनीय हैं। शास्त्री ने हरित क्रांति की नींव रखी और 1965 के युद्ध में सफल नेतृत्व किया। वह पांच साल और जिंदा रहते, तो देश का इतिहास बिल्कुल अलग होता। जबकि मनमोहन सिंह के राज में किसी एक ठोस उपलब्धि का जिक्र करना मुश्किल है। मनरेगा और खाद्य सुरक्षा बिल जैसी लोक-लुभावन योजनाओं के बारे में अभी  एकराय नहीं है, वैसे भी उनका श्रेय सोनिया गांधी को जाता है। परमाणु समझौते की वजह से भारत की ऊर्जा सुरक्षा में कोई इजाफा नहीं हुआ है और उन्होंने अमेरिका के साथ जो विशेष संबंध बनाए थे, वे अब ठंडे हो चुके हैं। इसके बरक्स उन्होंने भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार का नेतृत्व किया है। उन्होंने प्रधानमंत्री के पद की गरिमा कम की है, क्योंकि वह एक भी बार लोकसभा के लिए नहीं चुने गए। मनमोहन सिंह ने असली नुकसान भारत की सार्वजनिक संस्थाओं को पहुंचाया। भारत में इसके पहले भी कमजोर प्रधानमंत्री हुए हैं, लेकिन किसी को पूरा कार्यकाल नहीं मिला।

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सबसे बुरा यह है कि इतने वक्त तक प्रधानमंत्री रहने के बाद वह इतना कम कर पाए।
यह सच है कि वक्त गुजरने के साथ सोच बदल सकती है। इंदिरा गांधी की ज्यादतियों ने कई हिंदुत्ववादियों को जवाहरलाल नेहरू की अच्छाइयां देखने का मौका दिया। राहुल गांधी की वजह से कई परिवार विरोधी लोगों को इंदिरा गांधी बेहतर नजर आने लगीं। यह मुमकिन है कि भविष्य के भाजपा प्रधानमंत्री की वजह से वामपंथी धर्मनिरपेक्ष लोगों को अटल बिहारी वाजपेयी बेहतर लगने लगें। लेकिन यह मुश्किल ही लगता है कि मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा आने वाले वक्त में ज्यादा हो सके।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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