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पुलिस को संवेदी बनाता एक लेखक

यदि किसी के पास सृजनशील व्यक्ितत्व हो तो वह जिस भी क्षेत्र में जाएगा, अपनी छाप अवश्य छोड़ेगा। ऐसे ही एक व्यक्ितत्व हैं विकास नारायण राय, जिन्होंने पुलिस जसे महकमे में भी अपनी सृजनशीलता और कल्पनाशक्ित...

 पुलिस को संवेदी बनाता एक लेखक
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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यदि किसी के पास सृजनशील व्यक्ितत्व हो तो वह जिस भी क्षेत्र में जाएगा, अपनी छाप अवश्य छोड़ेगा। ऐसे ही एक व्यक्ितत्व हैं विकास नारायण राय, जिन्होंने पुलिस जसे महकमे में भी अपनी सृजनशीलता और कल्पनाशक्ित के कारण अपनी गहरी छाप छोड़ी है। विकास मूलत: संस्कृतिकर्मी हैं, लेखक हैं पर उसी के साथ बड़े पुलिस अधिकारी हैं। वे तीन साल पहले हरियाणा पुलिस अकादमी के निदेशक बने थे और अपनी गहरी सांस्कृतिक दृष्टि के कारण इस दौरान अकादमी के पाठ्यक्रमों में एक नया आयाम जोड़ा जिसका नाम है-संवेदी पुलिस। इसका आशय यह है कि पेशेवर दक्षता ही काफी नहीं है, बल्कि उसे क्रियान्वित करनेवाली प्रगतिशील व आधुनिक दृष्टि भी होनी चाहिए। इसी क्रम में विकास ने हरियाणा पुलिस अकादमी के पाठ्यक्रम को साहित्य और ललितकलाओं से जोड़ा। साहित्य, नाटक, नृत्य-गीत, संगीत, फिल्म, भ्रमण और डायरी के प्रयोगों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया। इसी क्रम में 1857 : भारत का स्वतंत्रता संग्राम के मंचन का कार्यभार पिछले साल लिया। यह नाटक विकास का ही लिखा हुआ है और इसका मंचन भी उन्हीं के मार्गदर्शन में संभव हुआ है। 1857 चूंकि मेर भी अध्ययन और अनुशीलन का प्रिय विषय रहा है, इसलिए इस नाटक का सीडी मैंने मंगाकर देखा। नाटक ने मेर मन को छू लिया। विकास नारायण राय इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं और इसीलिए इतिहास से जुड़ने की एक समझ भी उनके पास है। विकास के इस निष्कर्ष से भला क्या कोई असहमत हो सकता है कि 1857 के इतिहास की कुछ बातें जनमानस में रखांकित होने से रह जाती हैं, जसे 1857 के स्वाधीनता संग्राम को इसलिए विफल मान लिया जाता है क्योंकि असंख्य शहादतों के बावजूद भारत पर ब्रिटिश शासन कायम रहा, पर उसी के समानांतर यह तथ्य रखांकित और विज्ञापित नहीं हो पाता कि उस संग्राम के बाद भारत एक व्यापारिक उपनिवेश न रह कर एक राजनैतिक समाज बन गया। मेरी राय में 1857 ने भारत को दो चेतनाएं एक साथ दीं। एक स्वाधीनता की चेतना और दूसरी आधुनिकता की। 1857 में ही अंग्रेजों ने कलकत्ता, बंबई और मद्रास में आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ही विश्वविद्यालयों की स्थापना की थी, किंतु इस संदर्भ में विकास नारायण राय का निष्कर्ष अलग है। वह यह कि 1857 ने उस अंग्रेजी अलाप को सदा के लिए बंद कर दिया कि अंग्रेज इस देश में भारतीयों को सामंती अंधेरे से निकाल कर उन्हें आधुनिकता के आलोक में ले जाने का ऐतिहासिक कार्यभार संपन्न करने आए थे। राय का यह भी मानना है कि सामंती अंधेरा बनाम आधुनिक आलोक का तर्क अंग्रेजों की सामरिक सांस्कृतिक पहल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। 1857 ने उनकी इस कथित दरियादिली को उलट-पुलट कर छोड़ा और देश को जनतांत्रिक पुनर्जागरण की दहलीज पर ला खड़ा किया। 1857 से भारतीय नवजागरण के बीजों का बहुआयामी प्रस्फुटन हुआ और सामाजिक चेतना द्वारा सामंतवादी ढांचे से निकल कर लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनस्र्थापना हुई। सैनिक, सामंत, किसान, कामगार, औरतें, दलित, बुद्धिाीवी व व्यवसायी यानी हर तबका उस महासंग्राम में शरीक हुआ था। 1857 की तूफानी परिवर्तनों की यात्रा को 150 साल बाद विकास ने अपनी हरियाणा पुलिस बल की तरफ से प्रकाश और ध्वनि के चमत्कार से इस तरह मंचित कराया है कि खाकी वर्दी के प्रति धारणा बदलने को हम बाध्य होते हैं। इसकी प्रस्तुति से जुड़े 800 स्त्री-पुरुष वहां के पुलिस महकमे के ही हैं। यह जानकर मैं चकित हूं कि इस नाटक की पिछले साल हुई 18 रंग प्रस्तुतियों को पौने दो लाख से ज्यादा लोगों ने देखा और सराहा। इस नाटक में काम करनेवाले उन जवानों को किन शब्दों में बधाई दी जाए जिन्होंने डंडा और बंदूक ढोने की डय़ूटी छोड़ कर इस तरह की कलात्मक प्रस्तुति को अंजाम दिया। इस तरह की रंग प्रस्तुति और सांस्कृतिक गतिविधि के जरिए ही पुलिस को संवेदनशील बनाया जा सकता है। विकास 1से भारतीय पुलिस सेवा में हैं और पुलिस में मानव संसाधन के विकास को लेकर विशेष रूप से सक्रिय रहे हैं। पुलिस को संवेदनशील बनाने की अवधारणा को पुलिस प्रशिक्षण का जरूरी हिस्सा बना कर उन्होंने यह जताना चाहा है कि सामाजिक जागरूकता और कानूनी सशक्ितकरण से ही लोकतांत्रिक पुलिस संभव हो सकेगी। रंग प्रस्तुतियों, साहित्य-संस्कृति के कार्यक्रमों, प्रश्नावलियों, कार्यशालाओं और सामुदायिक जुड़ाव के माध्यम से वे हरियाणा पुलिस अकादमी के प्रशिक्षणार्थियों को तो बदल ही रहे हैं, वे इन प्रयोगों को समाज के विभिन्न तबकों तक भी ले जा रहे हैं। विकास की किताब पुलिस और नागरिक समाज में संवेदी पुलिस से संवेदी समाज की ही कामना की गई है। मेरी राय में विकास ऐसी विरल विभूति हैं, जिन्होंने पुलिस प्रशासन की व्यस्तता में भी अपने साहित्य दीप को बुझने नहीं दिया है। संवेदी पुलिस अवधारणा से वे अर्जित करेंगे, यही हमारी कामना है।

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