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आत्म उद्धार

हम अपने मित्र भी हैं और शुत्रु भी हम ही हैं। प्रकृति जन्म ये शरीर, इन्द्रिय, कार्य, मन, बुद्धि सब इसका उपकार भी कर सकती है और पतन भी। यह तो जीव पर निर्भर है। स्वयं चेतन स्वरूप आत्मा होते हुए भी यह इन...

 आत्म उद्धार
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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हम अपने मित्र भी हैं और शुत्रु भी हम ही हैं। प्रकृति जन्म ये शरीर, इन्द्रिय, कार्य, मन, बुद्धि सब इसका उपकार भी कर सकती है और पतन भी। यह तो जीव पर निर्भर है। स्वयं चेतन स्वरूप आत्मा होते हुए भी यह इन प्राकृत वस्तुओं के पराधीन हो जाता है और पराधीनता में केवल दुख ही दुख है। हमने स्वयं ही संसार को अपना मान कर पकड़ रखा है। पकड़ क्या रखा है? पकड़ने की चेष्टा में ही लगे रहते हैं। सारा समय, सारी शक्ित, सारी आयु इसी संसार माया को मजबूती से पकड़ने का प्रयास करते रहते हैं जो प्रति क्षण हमसे छूटती जा रही है। सदा हमार साथ रहने वाली है नहीं। रह सकती ही नहीं। पुराना संबंध स्वाभाविक रूप से छूट रहा है और हम भ्रम में पड़े नए-नए संबंध जोड़ते जाते हैं। राग और द्वेषा तो आसक्ित हैं। विषय तो कभी-कभी कई अन्य कारणों से भी छोड़ देते हैं या छूट जाते हैं, किन्तु उनका राग अन्त:करण से नहीं जाता। यही लगाव हमार गुण-कर्मो से बने कारण शरीर का जन्मदाता है। यही कर्मो की पोटली हमारी हर जन्म में बढ़ती जाती है, भारी होती जाती है और हम इन्हीं संस्कारों में बंधे कई-कई जन्मों तक भटकते ही रहते हैं। यही जीव का पतन है। यह पतन हमारा न हो। अज्ञानता का अंधकार हमें न भटकाए इसके लिए प्रयत्न होना चाहिए। गुरु अथवा संत रूप में भगवान सदा विद्यमान रहते हैं। ग्रंथ रूप में भगवान का ज्ञान सदा मार्गदर्शक है। तत्व ज्ञान के रूप में गुरु, संत, परमात्मा, नाम सब कुछ सदा से है और मनुष्य रूप में जीव की योग्यता भी विद्यमान है। केवल नाशवान सुख की आसक्ित, सत्-असत् का भेद न कर पाने के कारण हमें वह सुख, वह आनन्द, उस अखंड ज्योति के दर्शन नहीं हो पाते जो हमार ही अंदर स्थित है। जो हमारा आत्मस्वरूप है उसकी विस्मृति ही हमार दुखों का कारण बनी हुई है।ं

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