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वेरी गुड सदानन्द

बैंकॉक यात्रा के दोरान मुझे एक विनम्र और हमदर्द भारतीय सज्जन मिले, जिनका तकिया कलाम था ‘वेरी गुड’। किसी के निधन की सूचना मिले, तब भी वेरी गुड। किसी का बच्चा दुर्घटना में हाथ पैर तोड़ ले, तब भी वेरी...

 वेरी गुड सदानन्द
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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बैंकॉक यात्रा के दोरान मुझे एक विनम्र और हमदर्द भारतीय सज्जन मिले, जिनका तकिया कलाम था ‘वेरी गुड’। किसी के निधन की सूचना मिले, तब भी वेरी गुड। किसी का बच्चा दुर्घटना में हाथ पैर तोड़ ले, तब भी वेरी गुड। मेर दोस्त बन गए वह सज्जन, यानी सदानन्द। मुझे वहां कुछ अल्लम-गल्लम खा लेने से फूड पायजनिंग हो गई। सदानन्द जी अस्पताल में आए और बोले- ‘भई वेरी गुड मुझे बहुत दुख हुआ। कितनी उल्टियां हुईं आपको, वेरी गुड।’ मेर जी में आया कि उनके सर पर ऐसा दोहत्थड़ मारूं कि तीन पुश्तों तक उनके परिवार में गंजे पैदा हों। मगर किस-किस की चंदिया चिकनी करूंगा? अपना इंडिया ‘वेरी गुडों’ से भरा पड़ा है। साइकिल पर रहे तब भी वेरी गुड। छलांग लगा कर हाथी पर चढ़ गए तब भी वेरी गुड। जलज पुष्प पर लेटे रहे तब भी वेरी गुड, पंजा पकड़ लिया तब भी। घी में चुपड़ी चाहे जहां मिले, वेरी गुड। सीन कट। एक जुलूस खिड़की तले पास हो रहा छुटभैय्यों के आगे-आगे, हार डाले, सौ-सौ ग्राम मुस्कुराहट फेंकते हुए हाथ जोड़े, नामांकन दाखिल करने, पय्यां-पय्यां इतने धीर चल रहे थे। मेर मुंह से निकला- वेरी गुड। पीछे खड़े मौलाना लादेन उबल पड़े- ‘खाक वेरी गुड। जानते हो इन्हें? जिस पार्टी ने इन्हें पाल -पोस कर बड़ा किया, उसे ही लात मार कर बीस दिन पहले इधर आए हैं। टिकट पा गए। एक का सत्यानाश करके दूसरी का कल्याण करने चले हैं। नानसेंस।’ मेर मुंह से निकला, वेरी गुड। चमचे उन्हें शब्द पकड़ाते जा रहे थे। और वे दनादन पिछली पार्टी का पोस्टमार्टम कर रहे थे। छुटभैये वाह-वाह कर रहे थे। पीछे-पीछे चल रही रागारी में एक को मैं पहचान गया। प्रोफेशनल था। कल शाम तक एक दूसर बजरबट्टू के पीछे था। वेरी गुड। पूरी-मिठाई और एक कुल्हड़ भर आबेहयात (समझे?) क्या नहीं करा लेती। इतनी ऊंची फेंक रहा था, जसे उसके बाप-दादा इसी पार्टी के दफ्तर की अलमारी में पैदा हुए हों। वेरी गुड। उनके गुजर जाने..आई मीन, जुलूस गुजर जाने के बाद, मौलाना ने मुझे आड़े हाथों लिया। पान की पीक गुटक कर पूछा- ‘क्यों लल्ला, जानते हो इनका हश्र क्या होगा? अभी तो ठुमकते हुए, हार डाले, कुर्बानी के बकर जसे सजे-धजे जा रहे हैं।’ मैंने डांटा- चुप! बुधवार के दिन मैं किसी की बुराई नहीं सुन सकता। हश्र सिर्फ जनता का होता है। इन चटरू-मटरू का हश्र कैसा। तू नहीं और सही, और नहीं और सही। बिना पेंदी का लोटा किसी तरफ भी लुढ़क सकता है। तुम्हीं ने कल मुझे भाई मेराज फैााबादी का शेर सुनाया था- ‘इसी फरब में सदियां गुजार दीं हमने..गुजिश्ता साल से शायद यह साल बेहतर हो।’

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