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करतब किसी का, कसरत किसी की

विएना में भारतीय राजनय की विजय का जश्न जिस दिलेरी और सीनाजोरी के साथ मनान का आह्वान हमारी सरकार कर रही है, उसे देखकर सिर्फ ऐसा करने वालों की अक्ल पर तरस ही खाया जा सकता है। एक पुरानी कहानी याद आती...

 करतब किसी का, कसरत किसी की
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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विएना में भारतीय राजनय की विजय का जश्न जिस दिलेरी और सीनाजोरी के साथ मनान का आह्वान हमारी सरकार कर रही है, उसे देखकर सिर्फ ऐसा करने वालों की अक्ल पर तरस ही खाया जा सकता है। एक पुरानी कहानी याद आती है, जब सिकंदर की पोरस से हुई थी लड़ाई। पोरस हारकर भी जीत गया था, क्योंकि उसने आत्मसम्मान और राष्ट्रीय गौरव को अक्षत रखा था। जब सिकंदर ने उससे यह पूछा (जनश्रुति के अनुसार) मैं तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करूं तो उसने बेहिचक उत्तर दिया, जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। उसने तो अपनी और अपने हिन्दुस्तान की इज्जत तो बचा ली और सिकंदर को लाजवाब कर दिया, पर हमारी मौजूदा सरकार पासा पलट कर खुद मुकद्दर या शोहरत का सिकंदर बनने में नाकाम रही है। वियना में जो राष्ट्र-राज्य विजयी प्रकट हुआ है, वह ‘उदीयमान’ भारत नहीं, बल्कि फिलहाल अंतरराष्ट्रीय मंच पर सर्वत्र स्ताचलगामी अमेरिका ही है। जाने कितने वर्षो से भारत ने यह हठ पाला था कि वह परमाणविक अप्रसार संधि अर्थात एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करेगा। अपने फैसल के पक्ष में भारत जो तर्क देता रहा है, वह आज भी अकाटय़ है। सदियों से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह बात स्वीकार की जाती रही है कि राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता को चुनौती नहीं दी जा सकती। अपने-अपन कार्याधिकार क्षेत्र में कोई भी राष्ट्र-राज्य अपनी संप्रभुता की कटौती बर्दाश्त नहीं कर सकता और न ही किसी बाहरी शक्ित का नीति निर्धारण में हस्तक्षेप। लेशमात्र भी ऐसा होता है तो ऐसे राष्ट्र-राज्य को स्वाधीन या स्वतंत्र नहीं समझा जा सकता। अब तक भारत का मानना रहा है कि परमाणविक अप्रसार संधि हम स्वेच्छा से ही स्वीकार कर सकते हैं, इसे हम पर थोपा कतई नहीं जा सकता। भारत दो-टूक यह कहता रहा है कि परमाणु शस्त्र संपन्न शक्ितयां इस मामले में दोहरे मानदंड अपनाती रही हैं। 1में भारत द्वारा पोखरण परीक्षण के बाद भी उसे किसी ने परमाणु संपन्न शक्ित स्वीकार नहीं किया और तभी से उसे निषेधों-प्रतिबंधों के शिकंजों में कस दिया गया। जिसे आज 34 वर्ष लंबे दर्दनाक वनवास और छुआछूत जैसे भेदभाव के युग का अंत कहा जा रहा है, उसकी शुरुआत तभी से हुई। युग जरूर बदला है और घटना वास्तव में ऐतिहासिक है, क्योंकि गुटनिरपेक्ष भारत पाला बदल रहा है और कम स कम परमाणविक शोध के क्षेत्र में स्वावलंबन के संकल्प को हमेशा के लिए तज रहा है। मगर यह बात भारत में जा कुछ हो रहा है, वह अमेरिकी दबाव में और देश को विदेश नीति के एक मुद्दे पर बुरी तरह दो धड़ों में बांटने के साथ हो रहा है। यहां हाल की उन अप्रिय घटनाओं का लम्बा लेखा-जोखा पेश करन की जरूरत नहीं, जिनकी याद अभी ताजा है पर यह बात अनदेखी नहीं की जा सकती कि अमेरिका के साथ परमाणविक करार के संदर्भ में प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार बार-बार सत्य के बारे में कंजूसी करते रहे हैं। शुरू से यह बात साफ थी कि यह राजनयिक परामर्श संवेदनशील परमाणु हथियारों के बारे में नहीं हो रहा, नीति निर्धारण में, नीति परिवर्तन में पारदर्शिता का और जवाबदेह जिम्मेदारी वाली जनतांत्रिक प्रणाली का घनघोर अभाव रहा है। पर बाकी देश की याददाश्त इतनी कमजोर नहीं समझी जानी चाहिए। इस मुद्दे पर दक्षिणपंथी ‘अति’ राष्ट्रवादी और विदेश से लाईन लेने वाले वामपंथी माक्र्सवादी एकजुट हैं। इसी मुद्दे पर हिन्दुत्ववादी भगवा ध्वजधारी और हरा परचम लहराने वाले इस्लामी कट्टरपंथी भी कंधे स कंधा मिलाकर असहमति प्रकट करते नार आ चुके हैं। यहां इस करार से होने वाले नफे-नुकसान या लाभ-लागत वाले बहस को फिर से शुरू करन की कोई जरूरत नहीं। हम अपने पाठकों का ध्यान सिर्फ उन उल्टी-सीधी कलाबाजियों की तरफ दिलाना चाहते हैं, जो हमारे राजनेता दिखा रहे हैं। करतब किसी का और कसरत किसी की। हकीकत यह है कि वियेना की परमाणविक ईंधन सुलभ कराने वाले देशों की बिरादरी में उदीयमान भारत को उसकी औकात अच्छी तरह बता दी। अमेरिका, चीन, रूस तो बड़ी ताकतें हैं। ऑस्ट्रिया, आयरलैंड और न्यूजीलैंड जैसे छुटभैयों ने भारत की पूरी तरह छीछालेदर की। आखिरकार वह भारत को अपवाद मानन के लिए, और छूट देन के लिए तभी तैयार हुए, जब अमेरिका ने उनकी बांहें मरोड़ना शुरू किया। जाहिर है परमशक्ित अमेरिका यह कतई कबूल नहीं कर सकता कि जिसकी पीठ पर उसका हाथ हो उस कोई और त्योरियां दिखाए। वैसे हमारा मानना है कि यह सब नूरा-कुश्ती थी, मात्र दिखावा। सारा तामझाम भारत को यह जतलान के लिए था कि बिना अमेरिकी कृपा के वह कुछ नहीं कर सकता। छोटे से छोटे देश के साथ उसकी दाल नहीं गल सकती। हाल के वर्षो में बड़े जोश-ओ-खरोश के साथ यह ऐलान किया जाता रहा है कि भारत की आर्थिक क्षमता कितनी विराट है। उसका बाजार कितना दैत्याकार है, उसके यहां सस्ते कुशल श्रमिकों कारीगरों की कितनी बड़ी फौज खड़ी है। कुल मिलाकर इन सब बातों का लुब्बो-लुबाब यही है कि भारत की हस्ती को पूरी दुनिया मानन को मजबूर है। न्यूक्िलयर सप्लायर्स ग्रुप की इस बैठक में इस ढोल की पोल दर्दनाक ढंग से खुल चुकी है। अगर पड़ताल और अच्छी तरह से की जाये तो यह कड़वा सच उजागर होते देर नहीं लगेगी कि विकसित देशों के साथ ही नहीं विकासशील अफ्रो एशियाई के साथ भी हमारे उभयपक्षीय संबंधों की नींव कितनी खोखली है और हम किसी पर भी वक्त जरूरत भरोसा नहीं कर सकते। जहां तक चीन का सवाल है, उसकी सहमति भी अमेरिका के रहम-ओ-करम से ही हासिल की जा सकी है। सुनने में आया है कि राष्ट्रपति बुश ने हूजिंताओं को जब खुद फोन किया, तब जाकर उन्होंने रास्ते में लगाये अड़ंगे हटान की बात मान ली। क्या हम भविष्य में हमेशा अमेरिका का मुंह देखते रहेंगे कि वह अपने आईएसडी बूथ का इस्तेमाल हमारे हित में करता रहेगा? एक बात और, जो हमें परेशान कर रही है, वह हमारे परमाणु वैज्ञानिकों का बहती बयार के साथ पीठ पलटना है। वह इसी से हुलस रहे हैं कि चलो जान छूटी, अब उनस कोई यह हिसाब नहीं पूछेगा कि ’74 से अब तक यह प्रतिभाशाली क्या कर रहे थे। इन्हें याद दिलान की जरूरत है कि उधर की बैसाखी के सहारे कोई एवरेस्ट पर नहीं चढ़ सकता। जो भी कहें विएना में जा कुछ हुआ उसका रत्ती भर श्रेय हमारे राजनयिक और नेता नहीं ले सकते। ‘हारे को हरिनाम’ की सलाह तो धर्मनिरपेक्ष भारत में देना बेकार है, पर क्या हाय-हाय करना भी वर्जित है। अब तो यही होगा- जबरा मारेगा और रोने भी नहीं देगा। लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संकाय के अध्यक्ष हैं।ं

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