पर्यावरण : और काटिए जंगल
ैसी भी प्राकृतिक आपदा से बिहार का पुराना याराना है। सदियों से किसी साल बाढ़ तो किसी साल अकाल। दोनों की कृपा नहीं हुई तो भूकम्प। और अब तो मानवजनित आपदाओं की लहलहाती धरती है बिहार। 1764 में बक्सर युद्ध...
ैसी भी प्राकृतिक आपदा से बिहार का पुराना याराना है। सदियों से किसी साल बाढ़ तो किसी साल अकाल। दोनों की कृपा नहीं हुई तो भूकम्प। और अब तो मानवजनित आपदाओं की लहलहाती धरती है बिहार। 1764 में बक्सर युद्ध जीतने के बाद बिहार, उड़ीसा और बंगाल की दीवानी हाथ लगते ही अंग्रेजों के सालाना जिलेवार गजेटियरों में बिहार की बाढ़ का जिक्र जरूर होता था। लेकिन तब की बाढ़ नुकसानदेह तो होती थी, विनाशकारी नहीं। क्योंकि मरने लायक न तो इस कदर इंसान होते थे और न ही ढहने लायक 20-25 हाार मकान। बाढ़ के लिये उत्तर और पूर्वी बिहार तब भी माकूल जगह हुआ करती थी, जिसमें आज भी कोई कमी नहीं आयी है। लेकिन तब एकाध हाार घर-झोंपड़े और एकाध हाार बीघे की फसल ही बाढ़ की चपेट में आते थे, लोग मरते भी थे, पर आज की तरह 50-50 लाख की आबादी उाड़ कर शरणार्थी बनने को अभिशप्त नहीं थी। तब की बाढ़ अपने पीछे सिसकती जिंदगियों के कारवां नहीं छोड़ जाती थी। जब बाढ़ उतर जाती थी और खेतों में पानी ठहर जाता था तो किसान का काम केवल बीज छिटकाने का ही रह जाता था और बिना ज्यादा मशक्कत के उसे तैयार मिलती थी भरी-पूरी फसल। क्योंकि तब की बाढ़ सिमटने के बाद खेतों को रत और कंकड़-पत्थर से नहीं भर देती थी। उत्तर-पूर्व बिहार में बाढ़ लाने का काम नेपाल से भारत की ओर उतरने वाली कोसी, बागमती, गंडक और अघवारा समूह की नदियां ही करती आ रही हैं। ये नदियां बारिश के दिनों में मदमस्त होकर अपने साथ जमीन को बंजर बना देने वाली रत नहीं लाती थीं। उनके साथ आती थी पहाड़ वाली वनस्पति और एसी मिट्टी जो खेतों के लिये अमृत का काम काम करती थी और उस पानी से अघाये खेत उगलते थे भरपूर फसल। इसीलिए अकाल को छोड़ दें तो अंग्रेजों को बिहार से मिलने वाले राजस्व में शायद ही किसी भी साल कमी आयी हो। जमींदारों के कोठे खलिहान भी हमेशा भर-पूर रहे। इसका सबसे बड़ा कारण यह था अंग्रेजों ने रल की पटरी या सड़क बनाने के लिये भले ही पेड़ कटवाए हों, पर घने जंगलों पर कुदाल देशियों ने ही चलाई। अंग्रेज जंगल काटने से इसलिए भी बचते थे क्योंकि उन्हें लपलपाती गर्मी वाले भारत में बसने के लिए चाहिए थे ठंडे स्थान। इसलिए वे पेड़-पौधों, जंगल और पहाड़ के साथ-साथ नदियों पर भी काफी मेहरबान रहे। हाारों-हाार बीघे के जंगल कटवाने का काम देशी जमींदार ही कर रहे थे, ताकि वहां मजदूरों-किसानों को बसा कर खेती करायी जाए और लाखों का नफा पीट कर अपनी कई पुश्तों का भला किया जाए। (आजादी के आसपास पूर्णिया और भागलपुर के जंगलों पर लिखी गई कृति आरण्यक के पन्ने पलट लें)। नेपाल से लगा उत्तर-पूर्व बिहार का सारा इलाका ऊपर से नीचे तक घने जंगलों से घिरा था, और उन जंगलों से होकर बहने वाली कोई भी नदी मानसून के दिनों में भीषण तो हो उठती थी, आज की तरह अनियंत्रित नहीं होती थी। नीचे हरहराती उतरती थी, पर भरभराती नहीं थी। पेड़ उसे बेताब होने से रोकते थे। आज तो गर्मी के मौसम तक में जब नेपाल बागमती का पानी छोड़ता है तो नजारा सावन-भादो का नजर आता है। उसमें बसें तक बह जाती हैं। तब पानी अमृत लाता था तो आज बिहार भर के भू-ाल में आर्सेनिक और आयरन की मात्रा खतर की सीमा को पार कर चुकी है। क्योंकि अब नदी के रास्ते घने जंगल वाले नहीं, पथरीले, रतीले और गंजी चांद वाले हैं। आजादी के बाद नेता-अफसर-ठेकेदार गठाोड़ ने सबसे पहले हमला बोला ही जंगलों पर। जो साल-दर-साल इस तरह साफ हुए कि क्या समतल जमीं और क्या पहाड़ सब नंगे हो गये। इसलिए अब नेपाल से किसी भी मौसम में छोड़ा जाने वाला पानी केवल गाद ला रहा है, बड़े-बड़े पत्थर ला रहा है, कचरा ला रहा है। मुजफ्फरपुर से सीतामढ़ी के साठ किलोमीटर के रास्ते में तीस किलोमीटर तक सड़क के दोनों तरफ बागमती के पानी और गाद का विस्तार है, जिसमें तरबूज भी नहीं उगाया जा सकता। कोसी बिहार का शोक हुआ करती थी, पर आज तो वह बिहार की तबाही है। कोसी आज और भी मरखनी और उद्दंड हो गई है, क्योंकि उसकी उद्दंडता पर लगाम लगाने को रास्ते में एक खूंटा तक नहीं है। उसे कामचलाऊ तरीकों से तो नहीं ही नाथा जा सकता। दसियों हाार करोड़ रुपये खर्चने के बाद भी नहीं। बिहार का शोक टाइटिल तो अब कोसी बैराज को दिया जाना चाहिए, क्योंकि प्रशासन की कृपा से वह कोसी के आगे थ्री नॉट थ्री की बंदूक बन कर रह गया है। याद है न, लद्दाख में चीनी सैनिकों के सामने हमार जवानों के हाथों यही थमायी गई थी। लेखक हिन्दुस्तान से जुड़े हैं।