फोटो गैलरी

Hindi News अहम मुद्दे और बेमतलब बातें

अहम मुद्दे और बेमतलब बातें

जैसे-जैसे चुनाव के दिन करीब आते जा रहे हैं तरह-तरह की अजीबोगरीब बातें सुनने, पढ़ने और देखने को मिलने लगी हैं। इसी की एक मिसाल है कि जिस वक्त भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणविक करार को ऐतिहासिक,...

 अहम मुद्दे और बेमतलब बातें
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
ऐप पर पढ़ें

जैसे-जैसे चुनाव के दिन करीब आते जा रहे हैं तरह-तरह की अजीबोगरीब बातें सुनने, पढ़ने और देखने को मिलने लगी हैं। इसी की एक मिसाल है कि जिस वक्त भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणविक करार को ऐतिहासिक, अभूतपूर्व और देश के भविष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि घोषित किया जा रहा था लगभग उसी वक्त कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वेसर्वा दिल्ली में एक जलसे से यह ऐलान कर रहे थे कि इस करार से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण फैसला अवैध बस्तियों के नियमित किये जाने का है। पाठक खुद फैसला कर सकते हैं कि इन दोनों मुद्दों को क्या एक साथ एक ही तराजू पर तौला जा सकता है? जाहिर है कि किसी भी मुद्दे का महत्व मतदाता विशेष के सामने बयानबाजी के वक्त बदल जाता है। कुछ ही महीने पहले स्वयं प्रधानमंत्री यह घोषणा करते पाये गये थे कि नक्सलवादी माओवादी हिंसा की समस्या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा नहीं ता कम से कम एक बड़ा जोखिम भरा मुद्दा है। तब से अब तक विभिन्न राज्यों में माओवादी हिंसा का विस्फोट बार-बार हुआ है, पर इस चुनौती से जूझन की प्राथमिकता बदल गई लगती है। नक्सली माओवादी हिंसा के उपद्रव का एक प्रमुख शिकार उड़ीसा रहा है, पर वहां इस वक्त चिंता हमारी सरकार को माओवाद को लेकर उतनी नहीं । कंधमाल में गिरिजाघरों में आगजनी और ईसाई मिशनरियों के प्रति बर्बर हिंसा का प्रयोग बेहद शर्मनाक घटनाएं हैं, पर इस समस्या को माओवादी खतरे से अलग कर देखना आत्मघातक ही सिद्ध हो सकता है। यह बात याद रखने लायक है कि सांप्रदायिक हिंसा की शुरूआत एक हिंदू धर्म प्रचारक समाजसेवी वृद्ध की हत्या से हुई है। इस कुकृत्य की जिम्मेदारी माओवादी स्वीकार कर चुके हैं। क्षुब्ध हिंदू धर्मावलम्बी स्थानीय जनता यह आरोप लगा रही है कि हत्यारे माओवादी ही नहीं ईसाई भी हैं। जिन नक्सली नेताओं ने इस मामले में बयान दिये हैं, उन्होंने यह बात उठाई है कि हिन्दू धर्म प्रचारक प्रकृतिपूजक आदिवासियों की पारंपरिक जीवन-शैली व उपासना पद्धति में हस्तक्षेप कर रहे थे और उसे बदलन की कोशिश कर रहे थे। यह सवाल तत्काल उठाया जाना जरूरी है कि क्या जब प्रकृति पूजक अपने पारंपरिक देवी-देवताओं के उपासक ललचा-फुसला कर बहका कर या भड॥ काकर ईसाई बनाये जाते हैं तब क्या आदिवासी जीवनशैली नष्ट-भ्रष्ट नहीं होती? यह बात उड़ीसा, मध्यप्रदेश के जनजातीय इलाके तक सीमित नहीं तमाम उत्तर पूर्वी राज्यों में आदिवासी-अनुसूचित जनजातीय आस्था-उपासना और पारंपरिक जीवन शैली के बारे में भी यह समाज उतना ही सटीक है। दुर्भाग्य का विषय है कि सरकार करोड़ों (बहुसंख्यक) हिन्दुस्तानियों की आस्था-परंपरा उपासना से जुड़े मुद्दों को चुनावी राजनीति की बेदी पर इतनी जल्दबाजी में और खुदगर्जी में बलि देती रही है। यह बात सुनने में कड़ुवी और राजनैतिक समझदारी से लापरवाह लग सकती है, मगर यह कबूल करन की जरूरत है कि कट्टरपंथी हिन्दुत्व का उफान और हिंदू मतावलंबियों में क्रमश: जहरीली मानसिकता का प्रसार इसी तरह के दोहरे मानदंडों और अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के कारण हुआ है। इतना कह देने भर से सरकार की जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती कि वह बजरंग दल जैसे ‘उग्रवादी’ हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों पर प्रतिबंध लगान की सोच रही है। यदि मन मार कर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली सरकार को सिमी पर प्रतिबंध लगान को मजबूर होना पड़ेगा तो उसको अपनी निष्पक्षता प्रमाणित करन के लिए और संतुलन बनाये रखन के लिए एक हिन्दू संगठन के बारे में भी ऐसा ही कुछ करना होगा। हमारा मानना है कि हर हिन्दुस्तानी का सर अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव वाले आचरण और उनके शोषण-उत्पीड़न के कारण शर्म से झुका रहना चाहिए। किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह किसी एक व्यक्ित या समूह के दोषी पाये जान के आधार पर पूरे समुदाय को शक के दायरे में लपेट ले। अमेरिका के साथ एटमी करार या राजधानी में अवैध बस्तियों को नियमित किए जान की तुलना में यह मुद्दा किसी भी और सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण है, इस देश के भविष्य के लिए। उड़ीसा में सांप्रदायिक हिंसा का विस्फोट, सरकारी नौकरियों में और चुनावों में आरक्षण के साथ बुरी तरह उलझा है। कुछ वैसे ही जैसे गये साल के गुर्जर-मीणा संघर्ष की जड़ें भी आरक्षण की खतरनाक ‘खाद’ ने पोसी थीं। जो विद्वान विश्लेषक एटमी करार या अवैध बस्तियों की नेस्तनाबूदी या इनके नियमित किये जान को लेकर मुखर होते रहते हैं, वे सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता या जातिगत वैमनस्य और आर्थिक विषमता के अंर्तसबंधों को टटोलने स कतराते रहते हैं। शबाना आज़मी को अक्सर बेहद गुस्सा आता है कि उनके पिताजी के नाम के साथ जिस शहर का नाम जुड़ा है, वह आतंकवादियों को मुठभेड़ों में ढेर करने के बाद नाहक बदनाम किया जा रहा है और ‘फर्जी’ मुठभेड़ें सांप्रदायिक जहर को और भी जानलेवा बनाती जा रही हैं। यह याद दिलान की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि आज की पीढ़ी में जितने लोगों का परिचय कैफी साहब की अद्भुत शायरी से होगा, उसस कई गुना के दिल में भाई दाऊद और उनके अनुचरों का खौफ हावी है। हर मुठभेड़ को फर्जी करार करना तरक्कीपसंद मानवाधिकार के संरक्षक तबके के लिए आसान या मजबूरी हो सकता है। हकीकत यह है कि ऐसे ऐलान ही बहुसंख्यकों को और मुठभेड़ के दौरान शहीद जवानों, पुलिस कर्मियों के परिवारों को आहत करते हैं। अभी हाल जामिया परिसर में हुई मुठभेड़ में अपनी जान कुर्बान करने वाले इंस्पेक्टर मोहन शर्मा के परिवार वालों ने इसी तरह के बयानों से खिन्न होकर अमर सिंह की सहायता राशि ठुकरा दी। इस देश की आबादी में अल्पसंख्यक का हिस्सा सोलह-सत्रह करोड़ है। सिख अल्पसंख्यक इससे भी कम हैं। इनके 0.001 प्रतिशत तबके के पथभ्रष्ट होने से ही देश की एकता और अखंडता के लिए कितना बड़ा संकट पैदा हो जाता है इसका अनुभव देश को है। इस बात का अनुमान बहुत आसानी से लगाया जा सकता है कि यदि बहुसंख्यक समुदाय के इससे भी हजारवें हिस्से ने जुनूनी तेवर अपनाये तो सांप्रदायिक संकट कितना विकराल रूप धारण कर सकता है। इन पंक्ितयों का लेखक स्वयं नास्तिक है, पर इस बात को भलीभांति समझता है कि धर्म और आस्था का प्रश्न लगभग सवा अरब आबादी वाले इस देश में लगभग प्रतिशत देशवासियों के लिए संवेदनशील और बेहद महत्वपूर्ण है। वह बहुसंख्यक हिंदू हों या मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी या आदिवासी। 21वीं सदी के पहले दशक में उदीयमान भारत को यह बात स्वीकार करनी ही होगी कि आज धर्म निरपेक्षता की खिचड़ी नेहरूयुगीन नुस्ख के अनुसार नहीं पकाई जा सकती और अगर पकाई गई तो इसे पचाना मुश्किल होगा। लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संकाय के अध्यक्ष हैं

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें