कैसे चलेगा काम, तेरे बिन लादेन
हमने टीवी पर पहले सुना। शाम से लेकर रात तक चैनलों पर ओसामा छाए रहे। चर्चा, परिचर्चा को सुनकर हमें यकीन हो चला कि जानकारी का दावा करने वाले खुद कुछ भी जाने बिना सिर्फ हवा में तलवार भांजते हैं। ऐसे यह...
हमने टीवी पर पहले सुना। शाम से लेकर रात तक चैनलों पर ओसामा छाए रहे। चर्चा, परिचर्चा को सुनकर हमें यकीन हो चला कि जानकारी का दावा करने वाले खुद कुछ भी जाने बिना सिर्फ हवा में तलवार भांजते हैं। ऐसे यह कोई नई बात नहीं। चाहे दूरदर्शन पर हो या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में, तर्क-कुतर्क की तलवारबाजी एक परंपरा है।
विख्यात विद्वान पधारते हैं। ‘बहसिया’ कर स्वंय को गैस-मुक्त करते हैं और फिर अपने रास्ते लगते हैं। फिल्मों में एक अदद खलनायक होना ही होना है, वरना नायक का चरित्र कैसे उभरेगा? यह बात जीवन में भी सच है। रावण नहीं होता, तो राम का क्या होता? कैसे वानर पुल बनाते? कैसे बजरंगबली का चरित्र उभरता? ऐसे भी वर्तमान समय नायकों का नहीं, बल्कि खलनायकों का ही है। उन्हीं की छाया में लघु नायकों का उदय होता है। फिर परलोक सिधार गए ओसामा तो महा खलनायक थे। कोई सोचे। ओसामा के बिना ओबामा की कल्पना संभव है क्या?
अपन तो इतना जानते हैं कि हमें ही नहीं, टीवी़, अखबारों को भी ओसामा की कमी खलेगी। सीआईए का क्या? उसका निष्क्रिय बैठना नामुमकिन है। आज नहीं तो कल, वह कोई न कोई ओसामा ईजाद कर ही लेगी। यह उसके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। वैसे ही, जैसे सियासी दलों के लिए अल्पसंख्यकों का वोट। क्या पता, कोई राजनैतिक दल मरहूम ओसामा को शहीद का दर्जा दे दें। सीआईए विलेन तलाशती है, हमारे सियासी बिरादर वोट।
बहरहाल, जब तक कोई महाखलनायक अवतरित नहीं होता है या नहीं करवाया जाता है, तब तक सबको माननीय ओसामा की यादों से ही काम चलाना है। क्या प्रभावी छवि है उनकी, उन्नत भाल, हवा में लंबी लहराती दाढ़ी और हाथ में निशाना साधती कालशिनोव। जिसके मुखारबिंद पर इतनी शानदार दाढ़ी है, उसके पेट की दाढ़ी का अनुमान तक कठिन है! क्या खाकर, दस सिर वाला रावण ओसामा का मुकाबला करेगा? यों हम और हमारी पूरी पीढ़ी किस्मतवाली है कि आतंक के इस खलनायक की अब सिर्फ स्मृति-शेष है। कौन जाने, आतंक का भी अंत एक दिन ऐसा ही हो।