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शहर में शेर

वह शेर-बच्चा अभयारण्य में जबर्दस्ती पकड़ कर लाया गया था। उसमें अभी भी जंगली आदतें हैं। खुद शिकार कर पेट भरना पीढ़ियों से बसा है अवचेतन में। यहां उसे बैठे-बिठाए खाना मिलता है जसा बिना हाथ पैर हिलाए,...

 शहर में शेर
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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वह शेर-बच्चा अभयारण्य में जबर्दस्ती पकड़ कर लाया गया था। उसमें अभी भी जंगली आदतें हैं। खुद शिकार कर पेट भरना पीढ़ियों से बसा है अवचेतन में। यहां उसे बैठे-बिठाए खाना मिलता है जसा बिना हाथ पैर हिलाए, यूरोप-अमेरिका में लोग सोशल सिक्योरिटी पर जिएं। तमाशबीन टिकट खरीदते हैं, उसे देखने के लिए। उसे अजीब सा लगता है। कहां फंसे! क्या वह जंगल का अजूबा है कि लोग उसे बंदर-बंदरिया के तमाशे की तरह ताकें! निठल्ले बैठे उसे न भूख लगती है, न प्यास। वह बेहद बोर होकर कभी दहाड़ भी लेता है। उसे मजा आता है, जब उसकी दहाड़ से छोटे-बड़ों का दिल मुंह को आए। दूसर जानवर ताज्जुब करते हैं। क्या वजह है जो यह बेमन से खाता है, अरुचि से पानी पीता है। पानी की हौदी को ऐसे निहारता है जसे उसमें पोखर तलाशे जंगल का। शेर-बच्चा इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस खराती शरण्यस्थल में उसकी गुजर मुश्किल है। कब तक वह दूसरों की दया पर जिएगा? कहां उससे वन के चौपाए खौफ खाते थे, कहां वह अब इन दो-पायों तक के लिए दर्शनीय हो गया है। इस ख्याल से उसका आत्मसम्मान आहत होता है। आत्मा तो खर, जड़-चेतन सब में है। यह दीगर है कि इधर इंसान की आत्मा बिना इस्तेमाल दुम की तरह कहीं पलायन कर गई है। क्या पता जानवरों में प्रवेश कर गई हो। इसीलिए आलम यह है कि पेशेवर शातिर गुनहगार इंसानी जेलों में, पांच सितारा होटल के ठाठ-बाट से, रहते हैं, जबकि बेगुनाह उनके रहमोकरम पर। शेर-बच्चे को भी अभयारण्य में निर्दोष कैदी सा लगा। उसे पालतू जानवरों से कोफ्त होती। ये सब वन-परम्परा की नाक कटा रहे हैं। यहां के जानवर पेट तक भरने में असमर्थ हैं, इतने नाकारा कि जंगल में वापसी की सोचें तो कैसे सोचें? शेर-बच्चे का धर्य जवाब दे गया। ऊंची कूद और रखवालों की उनींदी चौकसी का उसने फायदा उठाया। सलाखों की बाड़ पार कर वह शहर में घुस लिया। शहर में प्रजातंत्र का ढोंग-उत्सव यानी चुनाव चल रहा था। प्रत्याशियों के कार्यकर्ता झोपड़-पट्टी में दारू और रुपए बांट कर लोकतंत्र को मजबूत कर रहे थे कि उन्हें शेर दिखा। वह सिर पर पैर रखकर भागे। वह भी सहमा। छिपते-छिपते एक बकरी ले उड़ा। तब से शहर के दादा, माफिया, नेता जसे कागजी शेर रूहपोश हैं। शहर की सड़कें सुनसान हैं। शेर-बच्चे के आगमन से शहरी जंगल में फर्क पड़ा है। यों कहना कठिन है कि अपराध के सियासी आकाओं की चालों से शेर कब तक बचेगा? उनके अस्तित्व का सवाल जो ठहरा। इधर सब घरों या सुरक्षा घेरों में बंद हैं। सब खौफादा हैं। असली के सामने यह नकली शेर पड़े तो उनका क्या हश्र होगा।

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