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आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया

जब जबकि राष्ट्रमंडल खेल बिना किसी बड़ी रुकावट के संपन्न हो गए हैं, तो हम सब राहत की सांस ले सकते हैं। इसके लिए मुख्य तौर पर उस सार्वजनिक हंगामे को श्रेय दिया जाना चाहिए जिसने तैयारी की कमियों को...

आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 17 Oct 2010 11:09 PM
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जब जबकि राष्ट्रमंडल खेल बिना किसी बड़ी रुकावट के संपन्न हो गए हैं, तो हम सब राहत की सांस ले सकते हैं। इसके लिए मुख्य तौर पर उस सार्वजनिक हंगामे को श्रेय दिया जाना चाहिए जिसने तैयारी की कमियों को उजागर कर दिया और आयोजकों (पूरी भारत सरकार) ने अपने काम को व्यवस्थित कर खेल को अच्छी तरह से हो जाने दिया। इसके बावजूद बड़ा सवाल यह बचा रहता है कि क्या खेल के लिए इतनी कीमत चुकाई जानी चाहिए थी? क्या खेल संपन्न होने के बाद मनोमालिन्य, अपमान, अफरा-तफरी का दौर और भारी खर्च जायज ठहराए जा सकते हैं।

अगर खेल बजट के करोड़ों रुपए बड़े हाथियों ने हड़प न किए होते और खेल का निरापद आयोजन हो गया होता, तब भी इस सवाल को पूछा जा सकता था। लंदन ओलंपिक का उदाहरण लीजिए। जब ब्रिटेन के उसके लिए बोली लगाई तो उनके देश में तमाम लोगों ने यह दलील दी कि ओलंपिक आयोजन का औचित्य नहीं है। इसके लिए जितने बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत होगी, उसकी तुलना में आमदनी नहीं होगी।

सन् 2003 में जब हमने राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की बोली जीती थी, तो हमने इसके पक्ष में तमाम तरह के तर्क दिए थे। तब कहा गया था कि खेल में ज्यादा खर्च नहीं होगा। उस समय 1899 करोड़ रुपए का आंकड़ा बताया गया था। करीब दो हजार करोड़ के इस निवेश के एवज में दुनिया में नए भारत के प्रचार का दावा किया गया था। इस दौरान दिल्ली शहर का कायापलट हो जाएगा।

एक ऐसा वैश्विक स्तर का आधारभूत ढांचा तैयार होगा जो वर्षो तक चलता रहेगा। भारत के युवाओं में एक नई खेल संस्कृति का विकास होगा। हालांकि उस समय भी इन दलीलों पर संदेह करने वाले थे, लेकिन तब वे गैरवाजिब नहीं लग रही थीं। मुख्य खेल अक्सर प्रायोजक देश के लिए विज्ञापन का काम करते हैं। सन् 1964 के ओलंपिक ने दुनिया को यह सूचना दे दी थी कि जापान द्वितीय विश्व युद्ध की तबाही से उबर चुका है और जल्दी ही महान देश बनने वाला है। विशेष तौर पर बीजिंग ओलंपिक ने चीन की क्षमता और भव्यता के उद्बोधन से पश्चिमी देशों को चौंका दिया।


क्या राष्ट्रमंडल खेलों से भारत की छवि में सुधार हुआ है? सबसे पहले तो हमें यह मानना चाहिए कि यह खेल छोटा-सा लीग आयोजन है, जिसकी दुनिया के तमाम देश अनदेखी करते हैं और इस खेल का कद ओलंपिक या फुटबाल वर्ल्ड कप के करीब भी नहीं है। अगर यह निर्बाध तौर पर सफल भी रहे होते तो भी खेल की हैसियत के लिहाज से इसका लाभ बहुत सीमित रहने वाला था।

हमें यह भी मानना चाहिए कि खेलों से भारत की छवि पर बहुत कम फर्क पड़ा है। सही या गलत पर दुनिया के ज्यादातर देश हमें अब चीन का संभावित प्रतिद्वंद्वी मानते हैं। हमें एक उदीयमान महाशक्ति के तौर पर देखा जा रहा है और माना जा रहा है कि यह ऐसा समाज है जिसमें स्मार्ट और तकनीकी दक्षता वाले युवा भरे पड़े हैं। इसलिए वही खेल भारत की छवि सुधार सकता है जो उसकी हैसियत के स्तर का हो। दूसरे शब्दों में उसका स्तर बीजिंग ओलंपिक जैसा ही होना चाहिए।

क्या यह खेल बीजिंग ओलंपिक के टक्कर का बैठता है? क्या इसे देखकर लगता है कि इसमें इतना अद्भुत प्रदर्शन किया जितना एक उभरती महाशक्ति को करना चाहिए? अगर आप इसका जवाब न में पाते हैं तो आपको निष्कर्ष अपने आप मिल जाएगा।

खेल ने नए भारत का प्रचार नहीं किया। खेल की तैयारी के दौरान जो कुछ हुआ, उससे भारत के बारे में कही जाने वाली हर निर्थक बात सही साबित हुई और भारत ने अपनी पुरानी नकारात्मक झलक दी। उदाहरण के लिए भारत भ्रष्ट है, भारत गंदा है और भारत के ठेकेदार घटिया काम करते हैं, वगैरह। ऐसे में भारत के बारे में सबसे अच्छी यही बात कही जा सकती है कि भारत उन देशों में है, जहां पर काम सही समय पर पूरा नहीं होता, पैसा लोगों की जेब में पहुंच जाता है, सुविधाएं गंदी हैं, फिर भी भारतीय आखिरी वक्त में अपना काम संयोजित कर लेते हैं और अच्छा प्रदर्शन कर डालते हैं।

क्या वास्तव में हम चाहते हैं कि दुनिया हमें इसी तरह से देखे? एक बार जब हम यह मान लेंगे कि खेल हमारा वैश्विक विज्ञापन करने में नाकाम रहा है, तो हमें घरेलू उपलब्धियों पर निगाह डालने की जरूरत पड़ती है। इस बात से कोई नहीं इनकार करेगा कि दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों के नागरिकों को फायदा हुआ है। कुछ सड़कें फिर से बनीं, कई फ्लाईओवर बने और मेट्रो नए इलाकों तक पहुंचाई गई। पर क्या शहर का कायापलट हुआ? क्या शहर एक साल पहले जो था, उससे आज अलग हुआ है?

क्या राजधानी में रहने वालों का जीवन खासतौर से बदला है? जवाब न होगा। सन् 1982 में जब एशियाड के लिए दिल्ली को संवारने पर सैकड़ों करोड़ खर्च किए गए थे तो शहर बदल गया था। तब वह एकदम अलग दिखने लगा था। इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ।

कुछ फायदे जरूर दिख रहे हैं। नए स्टेडियम और सुविधाओं का निर्माण हुआ है। खेल के मौजूदा ढांचे का पुनरुद्धार हुआ है। इन सुधारों से खिलाड़ियों को निश्चित तौर पर फायदा होगा। आप यह भी कह सकते हैं कि कुछ खेल भावना भी पैदा हुई है। भारतीय जब खेल की बात करते हैं, तो आमतौर पर उससे हमारा मतलब क्रिकेट से होता है।

राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुए भारत-आस्ट्रेलिया के टेस्ट क्रिकेट का ज्यादातर भारतीयों के लिए खास मतलब था। फिर भी जनता ने राष्ट्रमंडल की ट्रैक प्रतियोगिताओं, बाक्सिंग और दूसरे खेलों पर पहले के मुकाबले ज्यादा ध्यान दिया। आपको अपने से यह पूछना होगा कि क्या इन उपलब्धियों से हम इतने बड़े निवेश को सही ठहरा सकते हैं।

दो हजार करोड़ का मूल बजट कई गुना फूल गया और अनुमान है कि इसकी वास्तविक लागत 30 हजार करोड़ रुपए चली गई थी। अब हमें विकल्पों पर गौर करना चाहिए। इतनी रकम से हम अपने शहर की स्वास्थ्य सुविधा का कायाकल्प कर सकते थे। हजारों नए स्कूल खोल सकते थे। अपनी अराजक परिवहन व्यवस्था को सुधार सकते थे। ज्यादा पुलिस वाले भर्ती कर सकते थे और हजारों नई अदालतें बना सकते थे और मुकदमों का बोझ कम करने के लिए सैकड़ों जज नियुक्त कर सकते थे।

लेखक एचटी मीडिया के संपादकीय सलाहकार हैं

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