कहां से आया खबरिया चैनलों में इतना धीरज
आरोप इस बार नहीं लगे। 30 सितंबर को जब अयोध्या विवाद पर अदालत का फैसला आया तो खबरिया चैनलों ने धैर्य से काम लिया। यह धैर्य लोगों को दिखा भी। सिर्फ इसलिए कि कुछ लोग पहले से ही बाकयदा इसकी कोशिश...
आरोप इस बार नहीं लगे। 30 सितंबर को जब अयोध्या विवाद पर अदालत का फैसला आया तो खबरिया चैनलों ने धैर्य से काम लिया। यह धैर्य लोगों को दिखा भी। सिर्फ इसलिए कि कुछ लोग पहले से ही बाकयदा इसकी कोशिश में जुट गए थे। हालांकि उन्हें भी यह सफलता आसानी से नहीं मिली। एक पखवाड़े से चल रही जद्दोजहद, बैठकें, ई-मेल के जरिए सलाह-मशविरा और उद्योग के अन्य संगठनों से बातचीत, बाद ही यह मुमकिन हो सका।
हालांकि धैर्य तो इस बार राजनीतिक और धार्मिक संगठनों ने भी दिखाया, लेकिन फिलहाल हम बात को मीडिया तक ही सीमित रख रहे हैं। आज से करीब 11 महीने पहले जब इलेक्ट्रानिक न्यूज मीडिया के संपादकों की संस्था ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) बनी थी तो उसके पीछे की सोच इसमें बहुत काम आई। इस कोशिश में कई बार ऐसे क्षण भी आए जब लगा कि आगे बढ़ना दूभर होगा।
संपादकों में एक ‘सेंस ऑफ राइटियसनेस’ (सही होने का गर्व) रहता है और इसी सेन्स की वजह से कई दिक्कतें भी थीं, लेकिन सभी संपादकों के मन में एक भाव प्रमुख था कि खबरिया चैनलों के लिए यह एक मौका है जब वे अपनी परिपक्वता प्रदर्शित कर सकते हैं।
जाहिर है कि यह काम किसी भी तरह से आसान नहीं था। खबरिया चैनलों के बीच इतने बड़े अवसर पर टीआरपी लेने की होड़ को पूरी तरह तिलांजलि देना और वह भी एक स्वेच्छिक सामूहिक निर्णय के बाद और फिर उस पर टिके रहना सचमुच में एक मुश्किल काम था।
शुरू में संपादकों की संस्था बीईए ने तीन बातें तय कीं- फैसला आने के पहले कोई भी परिचर्चा (स्टूडियो डिस्कशन) नहीं होगी, फैसला आने के बाद परिचर्चा इसलिए होगी ताकि जनता को फैसले की पूरी तस्वीर दी जा सके और शरारती तत्वों को अफवाह फैलाने का कोई मौका न मिले सके। साथ ही यह भी तय हुआ कि खबर देने के पीछे पूरी कोशिश यह हो कि दो समुदायों के बीच शांति का माहौल तैयार हो सके यानी कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) में वर्णित प्रतिबंध- शांति व्यवस्था को जनहित के अन्य सभी तत्वों के ऊपर रखा गया।
यह भी तय किया गया कि अगर इसके बावजूद छिटपुट हिंसा होती है तो उसे नजरंदाज किया जाएगा। साथ ही पूरी तैयारी रखी जाएगी कि अगर शरारती तत्व अधिक उग्र हों तो उनको एक्सपोज किया जा सके। इसके अतिरिक्त उपद्रव की स्थिति में ऐसी कोई तस्वीर जिससे इन तत्वों के संप्रदाय का आभास मिलता हो, बिल्कुल नहीं दिखाया जाएगा। उपद्रवियों, मृतकों या घायलों के नाम नहीं बताए जाएंगे।
ऐसी कोशिशें हमने पहले भी की थीं, लेकिन उनके और 30 सितम्बर के कवरेज को लेकर हुई कोशिशों में एक गुणात्मक अंतर था। हमें यह नहीं मालूम था कि फैसले का स्वरूप क्या होगा और ऐसे में हमें उनका विश्लेषण किस तरह और कितना करना होगा। यह भी नहीं मालूम था कि समाज का कौन-सा वर्ग फैसले को किस रूप में लेगा और क्या प्रतिक्रिया देगा।
शुरू में न्यूज ब्रॉडकास्टर्स स्टैंडर्ड अथॉरिटी (एनबीएसए) के चेयरमैन और पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे. एस. वर्मा के दिशा-निर्देश में हुई बैठक में, जिसमें बीईए ने भी शिरकत की। इस बैठक में एक सलाह थी कि किसी भी किस्म की परिचर्चा न तो फैसले के पहले कराई जाए, न ही बाद में। लेकिन तब यह विचार आया कि अगर चैनल्स फैसले को सही परिप्रेक्ष्य में रखने की जिम्मेदारी नहीं निभाते तो अफवाहों को पंख लग जाएंगे और शरारती तत्व जनता को गुमराह कर हिंसा के रास्ते पर ले जाने में कामयाब हो जाएंगे।
लिहाजा यह सहमति बनी कि फैसले के पहले किसी स्टूडियो परिचर्चा की जरूरत नहीं है, पर फैसले के बाद सम्यक व तथ्यपरक परिचर्चा समाज में शांति बनाए रखने में सार्थक भूमिका निभाएगी। ऐसा नहीं है कि टीवी संपादकों की संस्था बीईए ने ही एक जिम्मेदार भूमिका निभाई हो। न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी गाइड लाइन्स जारी की। इसकी नियामक संस्था एनबीएसए पूरी तरह दिशा-निर्देश देती रही।
सरकार से हर स्तर पर संवाद होता रहा। मीडिया इस मुद्दे को हवा देने की जगह सहज रूप से एक शांति का वातावरण तैयार करता रहा, शरारती तत्वों को कोई मौका नहीं मिल पाया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक दलों ने या गैरराजनीतिक सामाजिक-धार्मिक संगठनों ने भी अपनी मर्यादा नहीं तोड़ी और फैसले को सहज भाव से लिया। शायद भारतीय समाज और प्रजातंत्र परिपक्व हो रहा है, इसी के साथ मीडिया को भी परिपक्व होना ही होगा।