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सुखमय जीवन का व्रत

इस दिन ‘अनन्त’ (यह कालरूप भगवान कृष्ण और काल का नाम है) की पूजा की जाती है और नमक रहित व्रत किया जाता है। चतुर्दशी तिथि रिक्ता तिथियों (4-9-14) में अंतिम है। रिक्ता का अर्थ है खाली।...

सुखमय जीवन का व्रत
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 17 Sep 2010 08:27 PM
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इस दिन ‘अनन्त’ (यह कालरूप भगवान कृष्ण और काल का नाम है) की पूजा की जाती है और नमक रहित व्रत किया जाता है। चतुर्दशी तिथि रिक्ता तिथियों (4-9-14) में अंतिम है। रिक्ता का अर्थ है खाली। सृष्टि के पालनकर्ता से प्रार्थना रिक्ता होने पर की जाती है, इसीलिए भगवान को दीनबन्धु कहा भी जाता है। अत: प्रकाशमय शुक्लपक्ष की अंतिम तिथि को प्रभु से प्रार्थना करना उचित ही है। इसका अभिप्राय यह है कि ऐसी उत्तम ऋतु के प्रकाशमय पक्ष में भी रिक्ता दयामय की दयालुता को अवश्य ही प्रदीप्त करेगी।

व्रती किसी पवित्र नदी या सरोवर तट पर जाए और वहां स्नान के उपरांत संकल्प करे। गाय के चमड़े जितनी भूमि को गोमय से लीपकर वहां सोना, चांदी, तांबा या मिट्टी का घड़ा स्थापित करे। इस पर शेषशायी भगवान विष्णु की मूर्ति के साथ चौदह (14) गांठ वाला डोरा रखकर इसकी पूजा करे। इसके उपरांत ‘‘ऊं अनन्ताय नम:’’ मंत्र से भगवान विष्णु सहित अनन्त सूत्र का षोडशोपचारपूर्वक पूजा करे।

नैवेद्य में पुलिंग नाम वाले पकवान ही देने चाहिए। साधारण लोग इस दिन रोटी का नैवेद्य न लगाकर रोट (मोटी रोटी) और खीर का भोग लगाते हैं। खीर यद्यपि हिंदी में स्त्रीलिंग है, किंतु संस्कृत में इसका नाम पायस है जो हिंदी के हिसाब से पुल्लिंग हो जाता है, क्योंकि हिंदी में नपुंसक लिंग नहीं है, अत: खीर भी इस दिन नैवेद्य में आती है। इसके पश्चात् पूजित अनन्त सूत्र को पुरुष दाहिने हाथ और स्त्री बायें हाथ में बांध ले।

कथा इस प्रकार है कि प्राचीन समय में सुमंत ब्राह्मण की सुशीला कन्या का कौण्डिन्य मुनि के साथ विवाह हुआ था। शीला ने चतुर्दशी को अनंत भगवान व्रत किया और अनंत सूत्र को अपने बायें हाथ में बांध लिया। भगवान की कृपा से शीला और कौण्डिन्य के घर में सभी प्रकार की सुख-समृद्धि आ गयी और उनका जीवन सुखमय हो गया।

दुर्भाग्यवश एक दिन कौण्डिन्य ने क्रोध में आकर शीला का अनंत डोरा तोड़कर आग में डाल दिया। इससे उनकी सब धन-सम्पत्ति नष्ट हो गई। वह दु:खी होकर अनंत को देखने वन में गया। वहां पर आम्र, गाय, खर, पुष्करिणी और वृद्ध ब्राह्मण मिले। ब्राह्मण स्वयं अनंत थे। वे उसे गुहा में ले गए। वहां पहुंचकर उसने कहा विद्यार्थियों को न पढ़ाने से आम हुआ। गौ पृथ्वी थी, बीजापहरण से गाय हुई। वृष धर्म, खर क्रोध और पुष्कारिणी बहनें थीं। दान लेने-देने से पुष्कारिणी हुई और वृद्ध ब्राह्मण मैं हूं। आप घर जाओ। रास्ते में आम्रादि मिले उससे संदेश कहते जाओ और दोनों व्रत करो सब आनन्द हो जाएगा।

इसी दिन गणपति उत्सव का आखिर दिन होता है। दस दिन पूजा के उपरांत भगवान गणेशजी की मूर्तियों का जल में विसर्जन करते हैं। ‘गणपति बप्पा मोरया पुढय्या वर्षो लवकरया’ अर्थात् हे गणेश बाबा आप अगले वर्ष फिर से आइए। इस उत्सव को महान् राष्ट्रभक्त, सनातन धर्म के उपासक लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने इसको राष्ट्रीय जागरण तथा हिंदू संगठन का माध्यम बनाने का प्रयास किया।

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