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अंधेरी सुरंग में रोशनी की लड़ाई

उस दिन बुखार था। सहयोगियों को काम सौंपकर न्यूज चैनल के मुख्य दरवाजे की ओर बढ़ रहा था कि अचानक दीवार पर टंगे मॉनिटर पर नजर गई। एक जहाज गगनचुंबी इमारत से टकरा रहा था। पैर जड़ हो गए। जब तक कुछ समझता, तब...

अंधेरी सुरंग में रोशनी की लड़ाई
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 11 Sep 2010 09:53 PM
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उस दिन बुखार था। सहयोगियों को काम सौंपकर न्यूज चैनल के मुख्य दरवाजे की ओर बढ़ रहा था कि अचानक दीवार पर टंगे मॉनिटर पर नजर गई। एक जहाज गगनचुंबी इमारत से टकरा रहा था। पैर जड़ हो गए। जब तक कुछ समझता, तब तक दूसरा जहाज बगल की इमारत में घुसता दिखा। दिमाग में कौंधा कि हम संसार के सबसे बड़े आतंकवादी हमले से रूबरू हैं। वह सितंबर 2001 की 11वीं तारीख थी।

वह सारी रात तो खबरों से जूझते-उलझते कट गई। समूची दुनिया स्तब्ध थी और हम पहली बार अपने न्यूज रूम में बैठकर एक ब्रेकिंग न्यूज की उत्तेजना की जगह संत्रास झेल रहे थे। समझ में आ गया था कि अब दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी थी। इन नौ सालों के बदलाव के आप भी हमसफर हैं। इसलिए तफसील में जाने से बेहतर होगा कि हम पहले अपने आसपास बिखरे परिवर्तनों को गौर से देखें और इस बात पर विचार करें कि बेहतर दुनिया बनाने में हमारा क्या योगदान हो सकता है?

यह तय हो चुका है कि किसी जॉर्ज बुश या टोनी ब्लेयर के बूते से परे की बात है, एक अच्छी दुनिया बनाना। इस कठिन समय में यह भी विचार आता है कि राज्य की मौजूदा अवधारणा जिसे 1789 के क्रांतिवीरों ने अपने खून से सींचा था, बासी पड़ गई है। कैसे ?

आप याद कर सकते हैं। पहले विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशंस का गठन हुआ था। तबके हमारे पुरखों को उम्मीद थी कि यह संस्था एक नियामक की भूमिका अदा करेगी और हम विनाशकारी युद्धों से बच जाएंगे। दूसरे महायुद्ध ने इस ख्वाब को खाक में मिला दिया। बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ का उदय हुआ, पर यह आशा भी अब धुंधली पड़ गई है।

सोवियत संघ ने जब पूर्वी यूरोप के देशों को दबोचा और अमेरिका ने वियतनाम पर हमला बोला तब भी यह संस्था घिघियाती हुई नजर आई। चीन ने जब भारत पर आक्रमण किया तब तक तय हो चला था कि यू.एन.ओ. का मुख्यालय कुछ बड़े देशों की कठपुतली के तौर पर ही काम करता है। तीन दशक बाद जब इराक पर अमेरिका और नाटो के सदस्यों ने हमला बोला तो साफ हो गया कि दुनिया में आजादी अभी भी समुद्री मछलियों के कानून का दूसरा नाम है।

जो लोग यूगोस्लाविया के स्लोबोदान मिलेशेविच पर युद्ध अपराधी का मुकदमा चलाते हैं, वे जॉर्ज बुश सीनियर और जूनियर के नाम पर चुप हो जाते हैं। क्या इन लोगों ने दशकों से एक देश को बंधक नहीं बना रखा है? क्या हजारों घर उजाड़ने का दोष इनके ऊपर नहीं है?

मिलोशेविच ने जो किया वह छोटे से भूभाग का किस्सा था पर अपने पिता के ‘काम’ को आगे बढ़ाने के नाम पर बुश जूनियर ने पूरी दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया। पश्चिम परस्त मीडिया ने पहले माहौल बनाया कि इराक की फैक्ट्रियों में ऐसे घातक रासायनिक हथियार बन रहे हैं, जो पूरी दुनिया के लिए खतरनाक हैं। उदाहरण दिए गए कि कुर्दों के खिलाफ इनका इस्तेमाल हुआ। सद्दाम के एक सहयोगी का नाम ही कैमिकल अली रख दिया गया। नतीजा क्या निकला? अमेरिका अपने झूठ पर आधारित अभियान को सिरे तक नही पहुंचा सका।

सद्दाम की कथित फैक्ट्रियों में रासायनिक बम तो दूर खांसी का मिक्स्चर तक बनाने की सामर्थ्य नहीं थी। फिर आपने देखा होगा कि किस तरह सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटकाए जाने की फोटो सुनियोजित तरीके से मीडिया को लीक की गई। बुश के जो अमेरिकी रणनीतिकार इराकियों को बर्बर बताते थे, वे खुद कितने सभ्य निकले? अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को तो हम लोगों ने फांसी पर लटकते देखा था पर यह तालिबानियों की करतूत थी।

सद्दाम के गले में पड़ा हुआ फंदा दुनिया के सामने जाहिर कर इन लोगों ने क्या साबित किया? यही न कि उनमें और उनके दुश्मनों में कोई फर्क नहीं है। अगर यह 9/11 की सहज प्रतिक्रिया थी तो उसके बाद की आतंकवादी घटनाओं को हम किस नजरिए से देखें? पुरानी थ्योरी है ‘आंख के बदले आंख’। अगर हम ऐसे ही एक-दूसरे की आंखें निकालते रहे तो यह दुनिया कानों और अंधों से भर जाएगी।

अफसोस! तमाम राज्य प्रमुखों ने इस दौरान इसी अंधता का परिचय दिया है। अमेरिका गर्व से कहता है कि इन नौ सालों में हमारे यहां एक भी बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ। यह ठीक है। यह सच है कि अलकायदा इन नौ सालों में वर्ल्ड ट्रेड टॉवर जैसा कोई हमला नहीं दोहरा पाया है। पर यह भी सच है कि इसकी कीमत हिन्दुस्तान जैसे देशों को भुगतनी पड़ी है।

हमने इस दौरान अपनी धरती के तमाम लाल खोए हैं। फिर अमेरिका खुद दहशत में जी रहा है। स्वयं को विश्व का सबसे ताकतवर लोकतंत्र बताने वाला यह देश अपने ही लोगों की स्वतंत्रता पर गहरी चोट कर रहा है। एक अमेरिकी राजनयिक ने मुझे पिछले न्यूयार्क दौरे के दौरान बताया था कि हम अब तक दस लाख अफ्रीकी और एशियाई मूल के लोगों को अपने देश से बाहर धकेल चुके हैं।

संयोग से इनमें से अधिकतर मुसलमान थे। सिर्फ यही नहीं। सतर्कता अब आक्रामक आशंका में बदल गई है । शाहरुख खान सिर्फ़ इसलिए हवाई अड्डे पर रोक लिए जाते हैं, क्योंकि उनके नाम के आगे खान लिखा हुआ है। शाहरुख स्टार हैं, इसलिए यह घटना चर्चा बन गई, पर अमेरिकी हवाई अड्डों पर हजारों लोग हर रोज ऐसे ही बेइज्जत किए जाते हैं।

सिर्फ अमेरिका ही क्यों? तमाम यूरोपीय देशों का यही हाल है। लंदन के एक ट्यूब स्टेशन पर शक के आधार पर पुलिस वालों ने एक ब्राजीली नागरिक को मार गिराया था। पहले तो भारतीय पुलिस की तरह वहां की स्कॉटलैंड यार्ड दावा करती रही कि यह कुख्यात आतंकवादी है। असलियत खुली तो पुलिस प्रमुख ने अफसोस भी जताया तो इस अंदाज में कि हम आगे भी ऐसी गलतियां कर सकते हैं, नागरिक सतर्क रहें।

यही वजह है कि फ्रांस और जर्मनी जैसे तथाकथित आधुनिक देशों में समाज दो फाड़ हो गया लगता है। मुस्लिम अपनी पहचान को लेकर पहले के मुकाबले ज्यादा सजग और सतर्क नजर आते हैं। ईसाइयों को यह नागवार गुजरता है। इसलिए अमेरिका का एक अज्ञात पादरी जब चर्च में कुरान जलाने की घोषणा से सुर्खियां बटोरता है तब मुझे अचरज नहीं होता। कुछ लोगों को इसमें हंटिंगटन की ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ दिखता है, पर मसला इतना निराशाजनक नहीं है।

9 /11 की नौवीं बरसी के एक दिन बाद हमारे पास गर्व करने की तमाम चीजें हैं। छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो दुनिया के अमनपसंद लोग आज भी एक हैं। अमेरिका इराक से अपना काम अधूरा छोड़कर लौट रहा है और ओसामा बिन लादेन के बारे में पता नहीं कि वह जिंदा है या मर गया। नफरत के इन दो ध्रुवों के बीच प्राकृतिक आपदाओं और स्वनिर्मित आर्थिक मंदी को पीछे छोड़ दुनिया आगे बढ़ रही है। उम्मीदों के दीये जलाए रखने के लिए क्या इतना काफी नहीं है?

shashi.shekhar@hindustantimes.com

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