कला का दस्तावेजीकरण
चित्रकला पर मैंने अपनी सबसे पहली फिल्म, ‘समकालीन भारतीय चित्रकला’ वर्ष 1985 में बनाई थी। पिछले पच्चीस वर्षो में मैंने भारतीय चित्रकला के इतिहास पर 12 भागों की एक श्रृंखला और 28 फिल्में...
चित्रकला पर मैंने अपनी सबसे पहली फिल्म, ‘समकालीन भारतीय चित्रकला’ वर्ष 1985 में बनाई थी। पिछले पच्चीस वर्षो में मैंने भारतीय चित्रकला के इतिहास पर 12 भागों की एक श्रृंखला और 28 फिल्में अलग-अलग चित्रकारों पर या कलाकारों के समूह पर बनाई हैं। इसलिए मुझे यह गलतफ़हमी होने लगी थी कि शायद मैं ही एक अकेला फिल्मकार हूं, जिसने भारतीय चित्रकला पर इतनी फिल्में बनाई हैं। मेरा यह भ्रम तब टूटा, जब पिछले दिनों मैंने चेन्नई स्थित गीता की कुछ फिल्में देखीं।
गीता मूलत: चित्रकार हैं, लेकिन वह फिल्मकार भी हैं। दरअसल वह फिल्म विधा को कला का ही एक रूप मानती हैं। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात कुछ वर्ष पूर्व भुवनेश्वर में हुई थी, जहां ‘जतिन दास सेंटर फॉर द आर्ट्स, हर साल कला पर फिल्में और कलाकारों द्वारा बनाई गई फिल्मों का एक समारोह करता है। फिल्म समारोह की यह अपने आप में बिलकुल अलग परिकल्पना है। जहां तक मेरी जानकारी है, सिर्फ कनाडा में ही एक ऐसा महोत्सव होता है, जहां केवल कला पर या कलाकारों द्वारा बनाई गई फिल्में दिखाई जाती हैं।
ख़ैर, भुवनेश्वर में गीता के साथ कुछ खास बातचीत नहीं हो पाई, लेकिन उनकी फिल्मों के बारे में उत्सुकता बनी रही। कुछ दिनों पहले मैंने ई-मेल द्वारा सम्पर्क करके उनसे अपनी कुछ फिल्में भेजने के लिये कहा और इस तरह मुझे उनकी चार फिल्में देखने का मौका मिला। ये फिल्में हैं, ‘आर.बी. भास्करन की कला’, ‘प्रफुल्ल मोहंती की कला’, ‘छह महिला कलाकार’, और ‘विद्यासंकर स्थापति की कांस्य मूर्तिकला’।
ये फिल्में देखने के बाद जो पहला विचार मेरे मन में आया, वह यह था कि कई दशकों तक समकालीन कला का अध्ययन और उस पर फिल्में बनाने के बावजूद मुझे के.सी.एस. पाणिकर (1911-1977) के बाद की दक्षिण भारतीय कला के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। शायद उत्तर भारत का मैं अकेला ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ, जो कला में रुचि होने के बावजूद, दक्षिण भारतीय आधुनिक कला के बारे में काफी हद तक अनभिज्ञ है। हमारा यह दुर्भाग्य है कि एक तरफ हम भूमंडलीकरण का दावा करते हैं और दूसरी तरफ हम अपने ही देश के कई हिस्सों के बारे में उदासीन बने रहते हैं।
हाँ, आऱ बी. भास्करन और उनकी कला के बारे में मैं थोड़ा-सा इसलिए जानता था, क्योंकि 2008 तक वह ललित कला अकादमी के अध्यक्ष हुआ करते थे और इस दौरान उनसे कई दफ़ा मुलाकात हुई थी। गीता की फिल्म भास्करन की कला के विकास का एक संवेदनशील ढंग से चित्रण करती है। भास्करन का जन्म 1942 में हुआ था और मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट एंड क्रॉफ्ट से स्नातक की डिग्री लेने के बाद शुरुआती दौर में उन्होंने के.सी.एस. पाणिकर के प्रभाव में काम किया। पाणिकर ने वर्ष1944 में मद्रास में प्रोग्रेसिव पेंटर्स एसोसिएशन बनाया था, जिसका मूल लक्ष्य था एक ऐसी प्रगतिशील कला का विकास करना, जिसकी जड़ें भारतीय संस्कारों में निहित हों।
इस दौर में भास्करन ने हिंदू पौराणिक प्रतीकों और चिन्हों को आधार बनाकर कई चित्र बनाये जिनका मूल उद्देश्य अपनी भारतीयता को साबित करना था। जल्दी ही भास्करन को यह समझ में आ गया कि यह ज़बर्दस्ती की भारतीयता उनकी कला के लिये पर्याप्त आधार नहीं है। बाद में उन्हें दो चित्र श्रृंखलाओं के लिये ख्याति मिली।
इनमें से एक थी ‘कैट सीरीज’ जिसके केंद्र में बिल्ली का आकार था और दूसरी ‘लाइफ साइकल सीरीज’ जिसके केंद्र में जन्म, जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म का विचार था, जो प्रकृति के हर रूप में मौजूद है। इसके अलावा उनकी एक और चित्र श्रृंखला काफी मशहूर हुई, जिसे ‘स्टूडियो फोटो सीरीज, का नाम दिया गया। इस श्रृंखला में ऐसे चित्र थे, जो एक दम्पति को लगभग उसी तरह दर्शाते थे, जैसे पुराने ज़माने में एक दम्पति किसी स्टूडियो में जाकर अपनी तस्वीर खिंचवाया करते थे।
गीता की फिल्मों की एक बड़ी खासियत यह है कि वह कलाकार के जीवन और कला को रैखिक यानी लीनियर ढंग से पेश नहीं करती - कहां जन्म हुआ, कहां शिक्षा हुई और पहले क्या किया, बाद में क्या किया आदि। प्राय: ये सब तथ्य फिल्म से निकलकर आते हैं, लेकिन एक रैखिक ढंग से नहीं। उनकी फिल्मों का उद्देश्य लगता है कि दर्शक को कलाकार के जगत की एक झलकी मिले और उसमें ऐसी उत्सुकता जगे, जिस कारण वह कलाकार के काम को स्वयं गम्भीरता से समझने के लिए प्रोत्साहित हो।
दरअसल चित्रकला पर फिल्म बनाने की यह एक बड़ी समस्या है कि हम पेंटिंग के एक शॉट को इतनी देर तक रोककर नहीं रख पाते, जितनी देर में दर्शक उसे तफ़सील से देख पाए। इसलिए एक फिल्म कभी भी दर्शक को वह अनुभव नहीं दे सकती, जो उसे एक पेंटिंग को असलियत में देखने से महसूस होता है। इसके विपरीत फिल्म द्वारा एक कलाचित्र को देखने के कुछ फायदे भी हैं, जैसे फिल्म ऐसी डीटेल्स की तरफ ध्यान आकर्षित कर सकती है, जिसकी तरफ असल ज़िंदगी में ध्यान शायद न जाए।
मैं यह मानता हूं कि कुछ कमियों के बावजूद फिल्म कलाचित्रों का दस्तावेजीकरण करने का एक अच्छा माध्यम है। इसलिए ललित कला और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय जैसी संस्थाओं को कला के दस्तावेजीकरण के लिए इस माध्यम को प्रोत्साहन देना चाहिए। डिजिटल वीडियो आने के बाद यह माध्यम सस्ता भी हो गया है और आसान भी, जैसा कि गीता के अनुभव से ज़ाहिर है, जो अपनी फिल्मों के लिए कैमरे का संचालन भी स्वयं करती हैं। इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि ये संस्थाएं फिल्मकारों से फिल्में लेकर उन्हें एक जगह संयोजित करें, ताकि कलाप्रेमियों को कलाकारों का काम विस्तृत रूप में समझने की सुविधा मिल सके। अभी तक इस ज़रूरत की तरफ ध्यान कुछ कम ही गया है।