फोटो गैलरी

Hindi Newsमाओवाद से निपटना बिहार से सीखें

माओवाद से निपटना बिहार से सीखें

बिहार में 2001 से 2004 के बीच नक्सली हमलों में 668 लोग मारे गये थे। पर सन 2006 से 2009 के बीच नक्सली हमलों में मृतकों की संख्या घटकर 160 रह गई। इस अवधि में नक्सली हिंसा की कुल घटनाएं भी क्रमश: 1117...

माओवाद से निपटना बिहार से सीखें
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 14 Apr 2010 08:53 PM
ऐप पर पढ़ें

बिहार में 2001 से 2004 के बीच नक्सली हमलों में 668 लोग मारे गये थे। पर सन 2006 से 2009 के बीच नक्सली हमलों में मृतकों की संख्या घटकर 160 रह गई। इस अवधि में नक्सली हिंसा की कुल घटनाएं भी क्रमश: 1117 और 338 रहीं। इसके साथ हालांकि यह खबर भी आई है कि नक्सलियों ने हाल के वर्षों में पहले की अपेक्षा कुछ अधिक भूभाग में अपने प्रभाव का विस्तार किया है। पर माओवदियों की असली पहचान तो उनकी मारक क्षमता ही है जिसमें कमी आई है।
यदि हथियारबंद जमातों की गतिविधियों में काफी कमी आती है तो यह महत्वपूर्ण बात है। यह किसी राज्य सरकार के लिए खुश होने वाली बात भी है। हाल में केन्द्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई ने यह कहा कि बिहार सरकार माओवादियों के प्रति नरम रुख अख्तियार कर रही है क्योंकि बिहार में इसी साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इस बयान पर उन लोगों ने आश्चर्य प्रकट किया है जिनके सामने बिहार में घटती नक्सली हिंसा के ताजा आंकड़े उपलब्ध हैं। यदि कथित नरमी से ही माओवादी हिंसा घटे और काफी घटे तो कड़े कदम का औचित्य ही कहां बनता है? देश के कई दूसरे इलाकों में तो कड़े कदमों के बावजूद माओवादी हिंसा बढ़ती ही जा रही है उसके बारे में क्या कहा जाए।
दरअसल बिहार में माओवादी हिंसा यूं ही अकारण कम नहीं हुई है। बिहार नक्सलियों का गढ़ रहा है। माओवादियों ने कभी देश की सबसे बड़ी नक्सली हिंसा मध्य बिहार के दलेल चक-बघौरा में ही की थी। माओवादियों के हथियाबंद दस्ते ने 1987 में वहां 54 भूमिपतियों को एक साथ मार डाला था। बाद के वर्षों में भी माओवादियों ने बारा और सेनारी में सामूहिक नरसंहार करके देश को चौंकाया था। इस मारक क्षमता से ही प्रभावित होकर आंध्र प्रदेश के पीपुल्स वार ग्रुप ने माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र यानी एमसीसी से विलय किया था।

नक्सली आंदोलन भले 1967 में बंगाल में शुरू हुआ था,पर वह बाद के वर्षों में बिहार में सबसे अधिक जमा। कई ब्रांड के नक्सली संगठन बने। एक जमाने में विनोद मिश्र के नेतत्व वाला नक्सली संगठन बिहार में सर्वाधिक प्रभावशाली था। पर चुनावों में शामिल होने के बाद उसका प्रभाव कम होता गया। दूसरी ओर माओवादियों ने भी विनोद मिश्र के संगठन के असर को कम कर दिया। माओवादियों की मजबूत उपस्थिति के कारण कई वर्षो तक बिहार में नरसंहारों की झड़ी लगी रही। अविकास और लचर कानून व्यवस्था ने भी उन्हें चारा-पानी पहुंचाया। पर पिछले चार वर्षो से बिहार में नक्सली समस्या जनित नरसंहार काफी कम यानी नहीं के बराबर हो रहे हैं। यहां तक कि माओवादियों की मारक क्षमता भी काफी कम हो गई है। ऐसा इस बात के बावजूद हो रहा है कि गांवों के अन्यायपूर्ण भूमि संबंधों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हो पा रहा है। अभी बदलाव संभव भी नहीं लगता है। क्योंकि बदलाव के प्रति बिहार का मजबूत भूमिपति वर्ग काफी असहिष्णु है। नीतीश सरकार ने गत साल सिर्फ बटाईदारी शब्द उच्चारित क्या किया कि बिहार विधानसभा के उप चुनावों में एनडीए 18 में से 13 सीटें हार गया। अब नीतीश सरकार ने बटाईदारी कानून को न छूने की कसम खा ली है। राजग को चुनाव में जो जाना है।
पर नीतीश सरकार ने गत वर्षों में जो कुछ दूसरे काम किए, उससे माओवादियों की मारक क्षमता कम होने लगी। अपुष्ट खबर के अनुसार माओवादियों को हमले के लिए उनकी ‘फौज’ के सैनिकों की संख्या कम होने लगी। एक तो कानून का शासन काफी हद तक लागू होने के कारण हत्यारे दस्ते के सदस्यों में यह भय व्याप्त हो गया कि यदि उन्होंने हिंसा की तो उन्हें अब अदालतों से सजा जरूर दिलवाई जाएगी। पहले ऐसी बात नहीं थी। दूसरी ओर सरकार ने विकास की गति तेज करके ऐसे गरीब लोगों में उम्मीद बंधाई जिनके पास कल तक माओवादी फौज में शामिल होने के अलावा कोई और उपाय नजर नहीं आ रहा था। याद रहे कि माओवादियों की फौज में शामिल हो जाने पर उन्हें भुखमरी से तो मुक्ति मिल ही जाती थी। कुछ साल पहले तक उन्हें कानून का भय भी नहीं था।
पिछले बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग के पदाधिकारी तैयारी के सिलसिले में बिहार आये तो उन्हें बिहार सरकार के प्रतिनिधियों ने बताया कि तब राज्य में 40 हजार ऐसे लोग हैं जिनके खिलाफ विभिन्न अदालतों से गिरफ्तारी के लिए गैर जमानती वारंट तो जारी हो चुके हैं, पर उन्हें बिहार पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी है। इसके विपरीत इस मामले में सन 2010 की स्थिति यह है कि त्वरित अदालतों के जरिए गत चार साल में करीब 38 हजार अपराधियों को सजाएं दिलवाई जा चुकी है। इन सजायाफ्ता लोगों में आम जघन्य अपराध, राजनीतिक हत्याएं, सांप्रदायिक दंगे और नक्सली हिंसा के मुकदमों के अभियुक्त भी शामिल हैं। इतने कम समय में इतने अधिक अपराधियों को सजाएं मिल जाने का असर यह है कि बिहार में हर तरह के अपराधों में कमी आई है जिनमें नक्सली हिंसा और प्रतिहिंसा भी शामिल है।
यानी किसी राज्य में तरह-तरह के अपराध करने वालों को अदालतों से सजा मिल जाने की गारंटी मिल जाए तो कोई पीड़ित, असहाय व गरीब व्यक्ति माओवादियों की कंगारू अदालत की शरण में आखिर क्यों जाएगा? बिहार का यह उदाहरण उन राज्यों के लिए नजीर बन सकता है जहां के गरीब सिस्टम से न्याय नहीं मिलने के कारण माओवादियों को ताकत पहुंचा रहे हैं।
बिहार सरकार ने कुछ समय पहले नक्सली इलाकों में ‘आपकी सरकार आपके द्वार’ कार्यक्रम चलाया। इसके जरिए सरकार ने जन विरण प्रणाली में सुधार किया। संचार व्यवस्था बेहतर की। साथ ही बिजली आपूर्ति में सुधार कराया। इसके अलावा भी गरीबी कम करने और राहत तथा कल्याण के कार्यक्रम चलाये। इन कार्यक्रमों के जरिए सिद्धांतों से लैस कट्टर माओवादी कॉडर से गरीबों को अलग करने में मदद मिली। नक्सली हिंसा के कम होने का यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा। पर इससे बड़ा कारण अदालती सजा का डर रहा। साथ साथ जहां जरूरत पड़ी, वहां पुलिस ने माओवादियों के खिलाफ आपरेशन भी चलाया।
हालांकि बिहार सरकार के मात्र ये ही उपाय राज्य में भी माओवादियों के प्रभाव को पूरी तरह समाप्त नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अब भी राज्य में भीषण गरीबी व्याप्त है। विकास, राहत और कल्याण के लिए आवंटित सरकारी पैसों में बंदरबांट जारी है। राजनीति व प्रशासन के भ्रष्ट तत्वों का मनोबल कम जरूर हुआ है, पर उसे पूरी तरह तोड़ा जाना अभी बाकी है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें