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औरत शरीर को हथियार नहीं बनाए तो क्या करे: मैत्रीय

हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श की सशक्त हस्ताक्षर मैत्रीय पुष्पा सोमवार को पटना के पाठकों के बीच थीं। हालांकि वह पटना पहली बार आयी हैं पर यहां से उनका लगाव बहुत गहरा है। वे औरतों की आजादी व उससे...

औरत शरीर को हथियार नहीं बनाए तो क्या करे: मैत्रीय
Mon, 09 Nov 2009 11:16 PM
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हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श की सशक्त हस्ताक्षर मैत्रीय पुष्पा सोमवार को पटना के पाठकों के बीच थीं। हालांकि वह पटना पहली बार आयी हैं पर यहां से उनका लगाव बहुत गहरा है। वे औरतों की आजादी व उससे जुड़ी समस्याओं पर बेबाक बोलीं। पाठकों की ओर से आए तीखे सवालों पर भी सुलझे जवाब दिए।45 वर्ष से उन्होंने लिखना शुरू किया पर कुछ ही दिनों में खासी चर्चित हो गयीं। तीन बेटियां होने के चलते घर-परिवार के काफी ताने सहे। लोगों ने बेटे के लिए व्रत रखने को कहा तो वह भी किया पर कभी भगवान से बेटा मांगा नहीं। तीनों बेटियां अब डाक्टर हैं। बड़ी बेटी ने ही लिखने की सलाह दी। हालांकि समीक्षकों ने उन्हें नहीं स्वीकारा पर पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। उनकी लिखीं किताबें न केवल चर्चित हुईं बल्कि बिकी भी खूब। वह कहती हैं कि मैं पाठकों के लिए लिखती हूं, समीक्षकों के लिए नहीं। उन्हें तो मैं घास भी नहीं देती।जब लिखना शुरू किया तो सबसे पहली चिट्ठी पटना से ही आयी। इससे प्रोत्साहन मिला और फिर तो लिखती गयी। इसके बाद ‘हिन्दुस्तान’ अखबार में लिखना शुरू किया। हिन्दुस्तान ने इतने सुधी पाठक दिए कि अपने आपको साहित्यकार समझने लगी। इसके बाद फणीश्वरनाथ रेणू हाथ लग गए। उनसे बहुत प्रभावित रही हूं।झांसी में कई नामचीन साहित्यकार थे पर मैं रेणू को ही पढ़ती थी। उनकी ‘मैला आंचल’ से काफी प्रभावित थी जिसकी छाप आपको मेरी किताब ‘इंदम नमं’ में देखने को मिलेगी। पहली किताब पति ने छपवायी थी, जो वह पति से छुपकर डायरी में लिखती थी। इसमें ‘प्रियतम’ शब्द देख पति को यही लगता था कि मैंने उन्हें संबोधित किया है पर वैसी बात नहीं थी। जान बचाने के लिए झूठ बोलती थी। पर वे इतने खुश थे कि शादी-ब्याह का कार्ड छपवाने वाले किताब छपवा दी।जब लिखना शुरू किया था तो नाम की भी समस्या थी। क्योंकि घर-गृहस्थी में इतनी रमी थी कि अपना नाम तक भूल गयी थी। दिल्ली में तो मिसेज शर्मा ही बन कर रह गयी थी। बाद में यह नाम चुना। साहित्यकार राजेन्द्र यादव पर जो भी लांछन लगते रहे हों पर उन्होंने मुङो बहुत मदद की लिखने में। स्त्री के बारे में जो भी कुछ लिखा उसे मैंने अनुभव किया व भोगा भी।गांव की कहानी लिखी नहीं जाती बल्कि जीयी जाती है। परंपरा से हटकर लिखना शुरू किया तो बहुत विरोध हुआ। बदलाव की बात करने पर विरोध तो होता ही। उपभोक्तावाद, बाजारवाद व भौगोलीकरण मैं नहीं समझती इसलिए इपर नहीं लिखती। न जाने क्यों बड़े साहित्यकार सरल भाषा में क्यों नहीं अपनी बात रखते हैं।

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