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झरते हुए शब्द

कवि-चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्मदिन 7 मार्च को पड़ता है। यहां प्रस्तुत हैं उनकी कुछ टिप्पणियां और कविताएं। पेड़ के नीचे रुक कर सुस्ता लिया,  फिर कापी...

झरते हुए शब्द
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 28 Feb 2015 08:44 PM
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कवि-चिंतक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्मदिन 7 मार्च को पड़ता है। यहां प्रस्तुत हैं उनकी कुछ टिप्पणियां और कविताएं।

पेड़ के नीचे रुक कर सुस्ता लिया,  फिर कापी निकाली तो मैं एक लम्बी सांस सुन कर चौंका। पर आस-पास कोई नहीं था। मैंने सोचा, भ्रम हुआ होगा,  हवा होगी। फिर लिखने की ओर दत्तचित्त हुआ।
लम्बी सांस फिर सुनाई दी।
पेड़ ने लम्बी सांस ली थी।
मैंने कहा, ‘क्यों पेड़, क्या हुआ?’
पेड़ ने कहा, ‘तुम कवि हो न?’
मैंने कहा, ‘हूं भी तो क्या? वन-प्रकृति का भक्त हूं, पेड़ों से प्रेम है मुझे-’
पेड़ टोक कर बोला, ‘होगा, होगा। तुम पेड़ पर कविता लिखो, या पेड़ को बचाने के आंदोलन के लिए ही कविता लिखो, छपेगी तो पेड़ की लुगदी पर ही। जब-जब कोई लिखता है,  मैं लम्बी सांस लेता हूं:  यह पेड़ काटने का एक और निमित्त बना..’
पेड़ ने फिर लम्बी सांस ली।
पेड़ के साथ कविता का एक यह भी रिश्ता है। इतना साफ नहीं दिखा था न?
कम लिखो। जब तक अनिवार्य न हो मत लिखो। जितना बनाना-संवारना है, मानस में ही कर के तब रूप को कागज पर उतारो- जितना घना, छोटा, गठीला बना कर सम्भव हो..
और हमेशा पहले पेड़ को प्रमाण करके, क्यों कि वही तुम्हारी बलि है..


कभी हमने हाथ उठा कर पुरखों की हड्डियों की शपथ ली थी : ‘हां, अनन्त काल तक के लिए!’
फिर हमने उन्हीं हड्डियों के ढेर पर खड़े हो कर हाथ उठा कर शपथ ली थी: ‘नहीं, कभी नहीं-अब कभी नहीं!’
अब-अब दोनों हाथों में दोनों के इतिहास उठा कर हम क्या शपथ लें?
उठे हुए हाथ केवल दुहाई देते हैं-
कब? कब? कब तक? कब तक?


कितना दूषित, कितना दुष्ट है वह समाज, जिसमें सजर्क प्रतिभा, रचनाशील मानव इकाई, विद्रोही की भूमिका में देखी जाती है! - जिसमें सजर्क प्रतिभा, रचनाशील मानवीय इकाई, बाध्य होती है कि अपने को विद्रोही की भूमिका में देखे! जो समाज मान लेता है कि सजर्क होना विद्रोही होना है, कि रचना करने के लिए विद्रोही की भंगिमा आवश्यक है, या जो ऐसी स्थितियां पैदा कर देता है और बनाए रखता है, जिनमें ऐसा माना जाने लगे, वह समाज तो अपने को स्वयं मरा हुआ, मर चुका स्वीकार कर रहा है! क्यों नहीं सर्जक प्रतिभा न केवल अपने को विद्रोही की भूमिका में पाने को बाध्य न हो, बल्कि समाज का अनुमोदन पाए, पाए कि समाज उस के साथ चलने को तैयार है और जहां साथ नहीं चल सकता वहां अनुधावन करने को प्रस्तुत है? ठीक है, समाज का काम स्थायित्व प्रदान करना है, संतुलन बनाए रखना है। पर स्थायित्व अगति नहीं है, संतुलन जड़ नहीं है। दूर आकाश में पंख फैलाए तिरते गरुड़ का भी एक स्थायित्व है, छूटे हुए तीर का भी एक संतुलन है। दौड़ता हुआ आदमी भी स्थायित्व और संतुलन रखता है..समाज भी दौड़ सकते हैं-या नहीं दौड़ते हैं और पड़े-पड़े सड़ते हैं-और विद्रोही को पूजते और मारते हैं : पूज कर मारते हैं, मिट्टी की प्रतिमा तोड़ कर विसजर्न करते हैं और गाते-बजाते घर लौटते हैं...


व्यक्ति सजर्क होता है, सृष्टि करता है। क्या समाज भी सजर्नशील होते हैं, सृष्टि करते हैं? अगर करते हैं, तो समाज में नियामक कौन होता है? समाज-व्यवस्थापक, समाज-अभियन्ता-मैनेजर्स आफ सोसायटी, एंजिनीयर्स ऑफ सोसायटी-ये पद आज सुनने को मिलते हैं। (प्राय: शासक वर्ग के लोग अपने को इन अधिकरणों में देखते हैं।)
पर क्या ये लोग या ये प्रयास मानव की सजर्नात्मक प्रतिभा के सम्पर्क में हो सकते हैं?


वह मंदिरों में जाती है। प्राय: मुझे भी साथ खींच ले जाती है। वह मंदिर में देवता से सदैव कुछ मांगती है। मैं एक कदम पीछे रहता हूं-मैं जानता हूं। क्या मांगती है, मैं कभी नहीं पूछता। यों भी वह अनधिकार समझता हूं: वह अक्षुण्ण निजता का क्षेत्र है। वह बताने भी लगती तो टोक देता। जान कर बोझ ही होगा..मैं स्वयं कुछ नहीं मांगता - मांगना सूझता ही नहीं-अपने को मंदिर के परिमंडल में गला देता हूं, विसजर्न कर देता हूं (जब वैसा सम्भव हो)...
इस बार एकाएक मन हुआ : मैं भी कुछ मांगूं? फिर जो बात सामने आई उसके कारण ठिठक गया। नहीं, ऐसा कुछ तभी मांगना चाहिए जब अपने भी बने रहने का कुछ ठिकाना होता! फिर नहीं मांगा-सोचा कि मांगूं भी तो यही मांगूं कि ‘मेरे कारण उसे कोई दु:ख न हो-न मेरे रहते, न मेरे न रहते...’


बर्फ गल चुकी थी। खेतों में एक बार ट्रैक्टर चल चुके थे:  अब जहां-तहां उनमें हड्डियों की खाद के ढेर लगे थे। खेतों के किनारे-किनारे आगे बढ़ता हुआ फिर वन में घुसा तो मन में विचार उठा, हां, ये तो मेरे पुरखों की हड्डियों पर पले हो सकते हैं-ये पोढ़े बांज, ये ऊंचे-ऊंचे देवदार..फिर बीच में एकाएक दो रुपहले तने वाले भूज और एक छरहरा अंगू दीखा, सोचा, सीधे पुरखा तो नहीं लेकिन पुरखिनों में कहीं कभी एक-आध मनचली छबीली की भी दबी-सी चर्चा तो सुनी थी न, जो..फिर सारी कल्पना पर और उसमें निहित अहन्ता पर हंसी आ गई। बांज-देवदारू को वनस्पति मान कर भी उनसे सीधा सखा-सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है, पूर्व-पुरुषों की ओट लेकर जाना तो जरूरी नहीं है। धीरे-धीरे वन भी पार तो हो गया : मन का वह प्रसन्न भाव साथ आया, हड्डियों की गंध पीछे छूट गई।


कविताएं

याद: सिहरन : उड़ती सारसों की जोड़ी।
याद: उमस : एकाएक घिरे बादल में
कौंध जगमगा गई।
सारसों की ओट बादल,
बादल में सारसों की जोड़ी ओझल,
याद की ओट याद की ओट याद।
केवल नभ की गहराई बढ़ गई थोड़ी।
कैसे कहूं कि किस की याद आई?
चाहे तड़पा गई।

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गा उठते हैं, ‘आओ आ ओ!’
केकी प्रिय घन को पुकार कर
स्वागत की उत्कंठा में वे
हो उठते उद्भ्रान्त, नृत्य पर!
चातक तापस तरु पर बैठा
स्वाति बूंद में ध्यान रमाए,
स्वप्न तृप्ति का देखा करता
‘पी! पी! पी!’ की टेर लगाए,
हारिल को यह सह्य नहीं है
वह पौरुष का मदमाता है
इस जड़ धरती को ठुकरा कर
उष समय वह उड़ जाता है।
बैठो, रहो, पुकारो-गाओ,
मेरा वैसा धर्म नहीं है,
मैं हारिल हूं, बैठे रहना
मेरे कुल का कर्म नहीं है।’

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खुल गई नाव
घिर आई संझा, सूरज
डूबा सागर-तीरे।
धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मंडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने।
तब फिर सिहरी हवा
लहरियां कांपीं,
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
जागी धीरे-धीरे

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कई नगर थे
जो हमें देखने थे।
जिन के बारे में पहले पुस्तकों में पढ़ कर
उन्हें परिचित बना लिया था
और फिर अखबारों में पढ़ कर
जिन से फिर अनजान हो गए थे।
पर वे सब शहर-
सुन्दर, मनोरम, पहचाने,
पराए, आतंक भरे-
रात की उड़ान में
अनदेखे पार हो गए।
कहां हैं वे नगर? वे हैं भी?
हवाई अड्डों से निकलते यात्रियों के चेहरों में
उनकी छायाएं हैं:
यह: जिस के टोप और अखबार के बीच से भव दीखती है-
इसकी आंखों में एक नगर की मुर्दा आबादी है,
यह-जो अनिच्छुक धीरे हाथों से
अपना झोला
दिखाने के लिए खोल रहा है,
उसकी उंगलियों के गट्टों में
और एक नगर के खंडहर हैं।
और यह-जिसकी आंखें
सबकी आंखों से टकराती हैं, पर जिसकी दीठ
किसी से मिलती नहीं, उसका चेहरा
और एक किलेबंद शहर का पहरे-घिरा परकोटा है।

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