फोटो गैलरी

Hindi Newsजरूरी मुद्दों को यों हवा में न उड़ाएं

जरूरी मुद्दों को यों हवा में न उड़ाएं

बहुत दिनों बाद खुशनुमा हवा के झोंके की तरह किन्हीं शकील अहमद साहब का मेल आया...

जरूरी मुद्दों को यों हवा में न उड़ाएं
Sat, 27 Jul 2013 09:32 PM
ऐप पर पढ़ें

बहुत दिनों बाद खुशनुमा हवा के झोंके की तरह किन्हीं शकील अहमद साहब का मेल आया है। उन्होंने हिंदू और इस्लाम धर्मों के पंद्रह प्रतीकों की तुलना करते हुए यह साबित करने की कोशिश की है कि अच्छाई तो दोनों धर्मों में एक ही है, पर हम उन्हें अलग-अलग नाम से बुलाते हैं। अपने मेल के आखिर में वह लिखते हैं, ‘एक कहानी दो भाषा में, फिर भी लड़ें बच्चों की तरह। माफ कीजिए, मेरा मतलब है नेताओं की तरह।’

आप सोच रहे होंगे कि इस मेल ने मुझे इतना खुश क्यों किया? बताता हूं। पिछले कई दिनों से महसूस कर रहा हूं कि जैसे-जैसे देश में चुनावी हरारत बढ़ती जा रही है, नेताओं की भाषा भी बदल रही है। भाषायी संयम के बांध टूट रहे हैं और बड़ी चालाकी से देश के लोगों को बांटने की कोशिश की जा रही है। लगभग सभी बड़ी पार्टियां इसमें शामिल हैं। वे हिन्दुस्तानियों को अपने भाई-बहनों की तरह नहीं, बल्कि वोट बैंक की तरह देखने की अभ्यस्त हैं। हम 1990 के दशक में जिस तरह अलगाव का लावा उबलता देख रहे थे, वैसी ही उत्तेजना इस बार भी पैदा करने की कोशिश की जा रही है। मेरी समझ में नहीं आता कि कुछ सियासी लोग खुद-ब-खुद कैसे करोड़ों लोगों की भावनाओं के ठेकेदार बन बैठते हैं? दुर्भाग्य से उनका ‘फॉर्मूला’ काम कर रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जिस तरह सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जा रहा है, वह यकीनन चिंता का विषय है। कुछ उदाहरण देना चाहूंगा।

पिछले दिनों ट्विटर पर व्हाइट हाउस के समीप विस्फोट की एक अफवाह फैलाई गई। इससे न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज व नैस्डैक में शेयरों के भावों में भारी उथल-पुथल मच गई। एक अमेरिकी पत्रकार ने बताया कि जब यह खबर हमारे पास आई, तो हमने इसे अपनी वेबसाइट पर तब तक न डालने का फैसला किया, जब तक कि इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हो जाती। विश्व के सर्वाधिक प्रामाणिक माने जाने वाले न्यूज माध्यमों में से एक डाऊ जोन्स  ने सिर्फ इतनी खबर जारी की कि किसी वजह से शेयर बाजार में उठा-पटक हुई है, जिसके जल्दी ही ठीक हो जाने की संभावना है। वे सही थे। किसी अराजक तत्व ने ट्विटर का गलत इस्तेमाल कर खलबली मचाने की कोशिश की थी। कल्पना कीजिए, अगर उसकी यह हरकत काम कर गई होती, तो न जाने कितने लोग दिवालिया हो गए होते और पूरे विश्व में अफरातफरी मच गई होती।

यह तो थी अनाम व्यक्ति की साजिश-कथा। कभी-कभी समझदार लोग भी इसके शिकार बन जाते हैं। जनरल परवेज मुशर्रफ को ही ले लीजिए। फेसबुक और ट्विटर पर उनके लाखों फॉलोअर थे। इनकी संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा था। जनरल साहब को लगा कि अगर वह पाकिस्तान लौटे, तो ये लाखों लोग सड़कों पर उनके लिए उतर पड़ेंगे। सोशल मीडिया पर उनके द्वारा कराए गए सारे अध्ययन उनकी इस धारणा की पुष्टि कर रहे थे। इसी गफलत में वह स्वदेश लौट आए। लाखों की तो छोड़िए, हवाई अड्डे पर उन्हें लेने पांच सौ लोग भी नहीं पहुंचे। उनके लिए जो लोग दुआ कर रहे थे, साथ लड़ने की कसमें खा रहे थे और पेज पर पेज भरे जा रहे थे, वे अपने कंप्यूटरों से ही चिपके बैठे रहे। नतीजा यह हुआ कि सेना, सियासत और न्यायपालिका में बैठे उनके दुश्मनों को लगा कि हिसाब बराबर करने का इससे बेहतर मौका नहीं मिल सकता। नतीजतन, तीन महीने से भी ज्यादा समय से मुशर्रफ साहब अपने ही देश में हिरासत में हैं और उनका भविष्य आशंकाओं की काल-कोठरी में कैद है।

अपने देश में भी हमने अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को इस गलतफहमी में पड़ते देखा है। महाराष्ट्र के गांवों में रालेगण सिद्धि के इस शख्स को संत का दर्जा हासिल था। सोशल मीडिया के सहारे अपनी महत्वाकांक्षाओं को गति देने वाले लोग उन्हें दिल्ली ले आए। दो साल पहले उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। आज उनके प्रशंसक कहां चले गए? दरअसल, हम एक आभासी दुनिया की ओर बढ़ने लगे हैं, जहां विचार, मूल्य और नायकत्व बहुत तेजी से बदल रहे हैं। इन्हें सच मान लेना भूल होगी।

मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि हम इनसे दूर रहें। फेसबुक और ट्विटर के सही इस्तेमाल का मैं बेहद पक्षधर हूं। समूची दुनिया के कल्याण और उसे एकजुट करने में इनकी बड़ी भूमिका हो सकती है। यही वजह है कि इनका दायरा बढ़ रहा है। मार्च 2013 तक सात करोड़ अस्सी लाख भारतीय फेसबुक से जुड़ चुके थे। यह इस महादेश की आबादी का साढ़े छह फीसदी हिस्सा है। सिर्फ एक साल में इसकी सदस्य संख्या में 50 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसी तरह ट्विटर से दो करोड़ हिन्दुस्तानी जुड़े हुए हैं। इनकी संख्या भी लगातार बढ़ रही है। पर इस बढ़ोतरी के साथ कुछ परंपराएं क्षीण हो रही हैं। इसका सबसे बड़ा शिकार भाषायी और सामाजिक मर्यादा है।

द न्यूयॉर्क टाइम्स  ने अपने एक अध्ययन में पाया कि सोशल साइट्स के लगभग 80 फीसदी उपभोक्ता मानते हैं कि इन पर अमर्यादित आचरण की मात्र बढ़ती जा रही है। 88 फीसदी लोगों का मानना है कि सोशल साइट्स पर लोग शराफत भूल जाते हैं और 76 फीसदी लोगों की किसी न किसी साइट पर किसी न किसी से झड़प हो चुकी है। कमाल देखिए। ये रार भी परिचितों के मुकाबले अपरिचितों से अधिक हुई। मतलब साफ है। ये साइट दोस्ती की बजाय दुश्मनियां बढ़ा रही हैं। यही वजह है कि हर पांच में से दो व्यक्ति या तो ब्लॉक कर दिए जाते हैं, अथवा लोग इन्हें मित्रों की सूची से बाहर कर देते हैं। फोर्ब्स  पत्रिका के सव्रेक्षण में भी 50 प्रतिशत लोगों ने माना कि सोशल साइट्स ने उनकी जिंदगी पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।

अफसोस! सोशल मीडिया के इस नकारात्मक पक्ष का दुरुपयोग राजनेता और पार्टियां अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही हैं। इससे कुछ नए खतरे उपज रहे हैं। मसलन, नेताओं को मुशर्रफ की तरह गलतफहमी होने लगी है कि उनके इतने लाख या करोड़ लोग मुरीद हैं। इससे उत्साहित होकर वे अपने चाल, चरित्र और चेहरे को उसी के अनुरूप ढालने लगे हैं। टेलीविजन ने खादी के सफेद कुरतों को रंगीन कर दिया। सोशल मीडिया अब हमारे गरीब और भदेस देश के नेताओं को ‘ग्लैमरस’ बना रहा है। यही वजह है कि बेहद जरूरी मुद्दे हवा हो रहे हैं और चलताऊ संवाद मुहावरों की जगह ले रहे हैं। आप याद कर सकते हैं। चीनी घुसपैठ जैसे संवेदनशील मुद्दों पर कैसी ‘ट्विटरबाजी’ की गई। सवाल उठता है, ऐसे लोग हमारे देश का क्या भला करेंगे?

जरा कल्पना करें। अगर सत्य की जगह अर्धसत्य, और अर्धसत्य का स्थान असत्य ले लेगा, तो हम किस दुनिया में पहुंच जाएंगे? गोएबल्स की थ्योरी थी, सौ झूठ एक सच के बराबर होते हैं। यहां तो हर क्षण नई शोशेबाजी हो रही है। उम्मीद है चुनाव के वक्त इस देश के संवेदनशील लोग समूचे मुल्क को नक्कारखाना बनाने पर आमादा सियासी सूरमाओं को सबक जरूर सिखाएंगे।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें