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युवाओं को परेशान करती पार्किंसन

हाथ, पैर या शरीर का कोई अन्य हिस्सा कंपकपाने की समस्या है तो इसे नजरअंदाज न करें। यह पार्किंसन बीमारी हो सकती है। इसके प्रति लापरवाही बड़ी समस्या बन सकती है। आइए जानें, क्या है इस बीमारी के लक्षण और...

युवाओं को परेशान करती पार्किंसन
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 06 Mar 2013 01:05 PM
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हाथ, पैर या शरीर का कोई अन्य हिस्सा कंपकपाने की समस्या है तो इसे नजरअंदाज न करें। यह पार्किंसन बीमारी हो सकती है। इसके प्रति लापरवाही बड़ी समस्या बन सकती है। आइए जानें, क्या है इस बीमारी के लक्षण और कैसे करें बचाव, बता रहे हैं मेदांता हॉस्पिटल के मूवमेंट डिसऑर्डर विशेषज्ञ डॉ. सुमित सिंह

रविशंकर तोमर को जब ये पता चला कि उन्हें पार्किंसंस बीमारी है तो उनके लिए ये सदमे से कम नहीं था, क्योंकि 34 की उम्र में जब करियर ऊंचाई पर था, ऐसे में इस रोग का होना ही उनके लिए किसी गहरे आघात जैसा था।

कुछ ऐसे ही दौर से पब्लिकेशन हाउस की एडिटर दीपा राधाकृष्णन भी गुजर चुकी हैं। 38 की उम्र में जब उन्होंने अपने बायें हाथ में ट्यूमर नोटिस किया तो वह डॉक्टर से मिलीं। डॉक्टर ने उन्हें आश्वस्त किया कि कुछ नहीं है, लेकिन बाद में ये पार्किंसंस बीमारी के रूप में सामने आई।

बढ़ रहे हैं मामले
आजकल युवाओं में पार्किंसंस बीमारी के कई मामले देखने को मिल रहे हैं। परम्परागत तौर पर देखे तो पार्किंसंस बीमारी उम्रदराज लोगों में ज्यादा होती है, खासतौर से 60 साल की उम्र के लोगों में ये समस्या अधिक पायी जाती है। ये न्यूरोलॉजिकल बीमारी है जिसमें रोगी को कंपन होता है। यह इतना ज्यादा बढ़ जाता है कि शारीरिक गतिविधियां रुक जाती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, तकरीबन 10 प्रतिशत लोगों में पार्किंसंस की समस्या युवावस्था में देखने को मिल रही है। कई लोगों को ये 30 की उम्र में हो रहा है तो कई किशोरावस्था में ही चपेट में आ रहे हैं।

मेंदाता हॉस्पिटल के न्यूरोसर्जन डॉ. आदित्य गुप्ता बताते हैं कि आजकल पार्किंसंस बीमारी उम्रदराज लोगों की बीमारी कहना गलत होगा। यह कम उम्र के लोगों को भी परेशान कर रही है। ज्यादातर लोग शुरुआत में इस बीमारी के लक्षणों को गंभीरता से नहीं लेते। बीमारी की पुष्टि हो जाती है तो उनकी परेशानी बढ़ जाती है।

क्या होता है इसमें
पार्किंसंस बीमारी शारीरिक गतिविधियों के विकारों की श्रेणी में आता है, जिसमें दिमागी कोशिकाएं बननी बंद हो जाती हैं। शुरुआती सालों में इसके लक्षण काफी धीमे होते हैं, जिसे अक्सर लोग नजरअंदाज कर देते हैं। इसके चार मुख्य लक्षण हैं। इसमें हाथ, बाजू, टांगों, मुंह और चेहरे में कंपकपाहट होना, जोडों या धड़ में कठोरता आना, हरकतों में धीमापन और सुंतलन व तालमेल बिगड़ना शामिल हैं। शुरू में रोगी को चलने, बात करने और दूसरे छोटे-छोटे काम करने में दिक्कत महसूस होती है।

युवा भी लपेटे में
न्यूयार्क से प्रकाशित शोध रिपोर्ट के अनुसार, युवाओं और पचास साल के लोगों में होने वाली इस बीमारी में अंतर होता है। युवाओं में पार्किंसंस रोग तेजी से फैलता है जिसके मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव पड़ते हैं।

दोनों ग्रुप के बीच के अंतर के बारे में मुझ समेत विशेषज्ञों के दल ने व्यापक अध्ययन के आधार पर पाया कि युवा रोगियों में पागलपन के लक्षण तो कम होते हैं, लेकिन दवाओं को लेकर भ्रम आदि की समस्या बढ़ जाती है। वे शरीर के एक या दो हिस्सों को असामान्य तरीके से मोड़ लेते हैं। खासकर उनमें टखने और बाजू मोड़ने जैसे लक्षण उभरकर आते हैं।

इलाज पर ध्यान दें
युवाओं की पहली प्रतिक्रिया होती है कि उनकी जिंदगी खत्म हो गई है। ऐसी स्थिति में यह जरूरी हो जाता है कि लोगों को इस बीमारी की जानकारी हो और इलाज के विकल्पों के बारे में भी। इस बीमारी का निदान ढूंढ़ना काफी मुश्किल है, क्योंकि इसकी कोई भी ऐसी जांच नहीं है। आमतौर पर डॉक्टर इसके लक्षण और रोगी की हालत देखकर ही इस रोग के बारे में बताते है।

सर्जरी के विकल्प
भारत में पार्किंसंस रोगियों के लिए सर्जरी के कई विकल्प हैं। प्रारम्भ में रोगी को ऐसे हॉस्पिटल में जाना चाहिए, जिसमें पार्किंसंस बीमारी के इलाज के लिए न्यूरोलोजिस्ट की विशेष टीम हो, जो मूवमेंट डिसआर्डर देखती हो और ब्रेन सर्जन (फंक्शनल न्यूरोसर्जन), जिन्हें इस तरह की सर्जरी करने का काफी अनुभव हो।

एव्टिवा सिस्टम
एव्टिवा सिस्टम में तीन घटकों को प्रत्यारोपित किया जाता है, जिसमें लीड, एक्सटेंशन और न्यूरो स्टेमुलेटर प्रमुख है। लीड एक पतली इंसुलेटिड तार है, जिसकी नोक पर चार इलेक्ट्रोड होते हैं, उसे दिमाग में प्रत्योरोपित किया जाता है। एक्सटेंशन न्यूरो-स्टेमुलेटर से जुड़ है, जो एक छोटा सीलबंद डिवाइस है। ये बैटरी की सहायता से 3 से 5 साल तक चलती है। न्यूरो स्टेमुलेटर छाती की त्वचा पर लगाया जाता है। नई टेक्नोलॉजी में न्यूरो स्टेमुलेटर काफी एडवांस है। ये स्टेम्युलेशन के लिए पल्सेस उत्पन्न करता है। शोधकर्ताओं ने ये भी पाया है कि इलेव्टिक पल्सेस दिमाग के असामान्य संकेतों  को ब्लॉक कर देते है, जो पार्किंसंस बीमारी के लक्षणों का कारण है। दिमाग के किसी खास हिस्से में बिजली की तरंगों से स्टेमुलेशन करके गतिविधियों को प्रभावित करता है। विद्युत तरंगें इलेक्ट्रोड तार द्वारा उत्पन्न करके उसे दिमाग में सर्जरी से स्थापित किया जाता है। दवाएं लक्षणों को नियंत्रित करने में सहायक नहीं होतीं तो डीप ब्रेन स्टेमुलेशन को किसी ड्रग या लेवोडोपा के साथ इस्तेमाल किया जाता है।  

पेलिडोटोमाई
पेलिडोटोमाई तकनीक में दिमाग के बहुत गहरे हिस्से (ग्लोबस पेलिडस) के छोटे से हिस्से को नष्ट किया जाता है।

थेलामोटोमाई
थेलामोटोमाई तकनीक में दिमाग के बहुत गहरे हिस्से (थेलामस) के छोटे से हिस्से को नष्ट किया जाता है।

न्यूरोट्रांसप्लान्टेशन
यह प्रयोगात्मक प्रक्रिया है, जिसमें पार्किंसंस बीमारी के इलाज पर अध्ययन किया जा रहा है। इसमें कोशिकाओं को ट्रांसप्लांट किया जाता है जो दिमाग में डोपामाइन को बढ़ाते है।

ऐसी नौबत न आने दें
अक्सर ऐसा देखने में आता है कि रोगी इस बीमारी के होने पर शर्मिंदगी महसूस करते हैं और अपनी समस्या लोगों से छिपाते रहते हैं। वे सोचते हैं कि दवाओं से ही ठीक हो जाएगा, लेकिन जब दवाएं काम करना बंद कर देती हैं तो रोगी के लिए डीप ब्रेन स्टिमुलेशन सर्जरी ही एकमात्र विकल्प बचता है।

इसके इलाज में सर्जरी के बाद दवाएं तो कम हो ही जाती हैं, दवाओं के दुष्परिणाम भी कम हो जाते हैं। डॉ. गुप्ता के अनुसार, ज्यादातर डोपामाइन दवाएं मरीज को 5 से 7 साल तक आराम दे पाती हैं। इसके बाद तीस या 40 की उम्र के इन युवाओं के लिए सर्जरी ही एकमात्र विकल्प बचता है, क्योंकि इस दौरान उन्हें सक्रिय जिंदगी जीने की जरूरत होती है।

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