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मन सध गया तो सब सध गया

प्राय: जितने भी लोग पहाड़ों पर घूमने के लिए जाते हैं, वो वही सब करने जाते हैं, जो यहां अपने शहरों में करते हैं- खाएंगे-पीएंगे, यहां...

मन सध गया तो सब सध गया
Mon, 09 Apr 2012 09:28 PM
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प्राय: जितने भी लोग पहाड़ों पर घूमने के लिए जाते हैं, वो वही सब करने जाते हैं, जो यहां अपने शहरों में करते हैं- खाएंगे-पीएंगे, यहां बैठे, वहां बैठे, वक्त बिताने के लिए अंत्याक्षरी खेल ली, बिलियर्ड खेल लिया, स्नूकर्स खेल लिया। पहाड़ में जाने का असल लाभ वही आदमी लेता है, जो वहां के एकांत का, वहां के मौन का, वहां की हरियाली का सुख ले।

आपको कभी जाने का अवसर मिले तो करके देखिएगा। पर पार्टी मूवर्स के साथ मत जाइए। आप इस तरह से पहाड़ पर अकेले जाएं, ताकि आप एकांत में बैठ सकें, सैर कर सकें, किसी वृक्ष के नीचे बैठ सकें, उस खुशबू को सूंघ सकें, जो महक एक वृक्ष में होती है। तब आप देखेंगे कि मन बिना किसी कारण के ही शांत हो जाएगा। पहाड़ की हवा ही ठंडी नहीं होगी, बल्कि तुम्हारा मन भी ठंडा होने लग जाएगा। इसीलिए जाना अच्छा भी लगता है।

अब लोग गलत इरादे से जाते हैं। ऐश, मौज-मस्ती करने ही जो पहाड़ जाते हैं, वे पहाड़ों पर असल लाभ नहीं ले पाते। लेकिन जितनी ऊंचाई, जितनी हरियाली, जितनी सुंदरता पर मनुष्य रहे, उतना ही वह ईश्वर के करीब हो सकेगा, यह मेरा मानना है। सीमेंट के, कंक्रीट के बने मकानों में, जंगलों में पड़े-पड़े तुम्हारा मन भी पत्थर जैसा हो जाता है। न खुली हवा, न खुली सांस ले सकें, बल्कि मैं समाचार पत्रों में पढ़ रही हूं, दिल्ली, नोएडा, फरीदाबाद-इन सब क्षेत्रों में लोगों को ब्रॉनकाइटिस, अस्थमा के अटैक हो रहे हैं छोटे-छोटे बच्चों को। अपने घरों के सामने कहीं कूड़ा जलाया जा रहा है, कहीं घरों का, फैक्टरियों का धुआं फैल रहा है, इतना प्रदूषण है कि अगर 90 साल जीना है तो आप 60 साल ही जीओगे।  30 साल यह प्रदूषण खा जाएगा।

खैर, ऊंचाई पर जाने से हमारे मन को ऊंचा उठने में आसानी हो जाती है। इसी तरह सब साधकों की नेचुरल-सी च्वाइस होती है कि जिस किसी को साधना करनी हो तो वह किसी-न-किसी पहाड़ पर जाएगा ही जाएगा। यह स्वाभाविक भी है कि साधना में गहराई सहजता से आती है। तो नानक ने उनसे कहा कि आप इतने सालों से यहां बैठे हो, तुम्हारा जोग सध गया, यह तुम्हारा दावा है। अगर तुम्हारा जोग सध गया है तो फिर यहां बैठे क्या कर रहे हो? तो उतरो न नीचे, जाओ  फिर दुनिया में, जाओ  बाजार में, जाओ लोगों के बीच में। अगर कुछ मिला है तो दूसरों में बांटो। और अगर कुछ नहीं मिला तो भी जिंदगी यहां रहकर बेकार न करो। यहां मत रहो, नीचे जाओ लोगों के बीच, दुनिया में जाओ।
कबीर देखिए, सारी जिंदगी बनारस में बैठे रहे, बीच चौक में अपनी बुनी हुई चादरें बेचते रहे। कबीरचौरा, जहां इनका निवास रहा है, वह जगह एक छोटा- सा मुहल्ला, एक तंग-सी गली, एक छोटा-सा मकान दूसरे मकानों से जुड़ा हुआ और बीच में बैठे हुए कबीर रामनाम की अलख जगाते रहे। क्या कष्ट हुआ उनको? मन सध गया तो शहर भी जंगल हो गया और मन न सधा हो तो जंगल भी शहर हो जाता है। वही सब मुसीबतें वहां भी खड़ी हो जाती हैं।

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