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राजनीति पर ललित निबंध की बानगी

भाई साहब, राजनीति पर निबंध लिखना तो जैसे पुराने मुहावरे में मेंढकों को तौलना है। एक पलड़े में मेंढक रखो, तो दूसरे पलड़े वाले कूद जाते...

राजनीति पर ललित निबंध की बानगी
Fri, 06 Apr 2012 10:00 PM
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भाई साहब, राजनीति पर निबंध लिखना तो जैसे पुराने मुहावरे में मेंढकों को तौलना है। एक पलड़े में मेंढक रखो, तो दूसरे पलड़े वाले कूद जाते हैं। राजनीति में जब-जब लतियाब होता है, तब-तब देश-दुनिया का मनोरंजन होता है। इस क्षेत्र में हमेशा से विभीषणों का जलवा रहा है। यहां कौरव तो स्वर्ग चले जाते हैं। पांडव पड़े रहते हैं, यहीं इंद्रप्रस्थ वाली हस्तिनापुर कॉलोनी में। राजधानियों में ज्यादा शांति मरघट वाली लगती है। आस-पास चुगलखोर न हों, तो नेता के दरबार की शोभा नहीं रहती। वैसे भी इस विधा में जूतम-पैजार तो अब नित्यकर्म की तरह नेचुरल-कॉल है। एक-दूसरे पर शक किए बिना गृहस्थी नहीं चलती, तो राजनीति क्या चलेगी? खर-दूषण न हों, तो रावण अनाथ लगने लगता है। अब कौन काली करतूत सफेदी पर भारी नहीं पड़ती? यह राजनीति का चरित्र है कि हर शूर्पणखा अपनी नाक कटने के बाद कोप भवन में बैठकर कारणों पर चिंतन करने लगती है।

राजनीति तो इतनी कुटनी है कि युवा से युवा मुख्यमंत्री के साथ दांपत्य भाव से रहने लगती है। यह अलग बात है कि उसके पीछे कोई कुंठित पत्रकार चुगली खा रहा हो कि- ‘दबंग मरा तब जानिए, जब तेरही हो जाए।’ अब भई राजनीति में शंका-आशंकाएं तो लगी ही रहती हैं। जाने कौन जल-कुकड़ा खटिया सरकाने के चक्कर में खटिया खड़ी कर दे। राजनीति में विरोधी दल वाले हमेशा मुंह सिकोड़े रहते हैं। नेता विपक्ष तो मुख्यमंत्री की कुरसी की तरफ देखकर आहें भरता है कि- ‘हाय रे इंसान की मजबूरियां। पास रहकर भी हैं इतनी दूरियां।’


राजनीति के ठुमका मारते ही लोकतंत्र का चौथा खंभा हिलने लगता है। इंद्रासन जब-जब डोला, तब-तब इंद्र ने अपनी कुरसी जोर से पकड़ ली। राजनीति जिनके घर पानी भरती है, वही कुटनी कभी-कभी पानी को तरसा भी देती है। ठग्गू का लड्डू जिसने खाया, वह पछताया और जो न खाया, वह ज्यादा पछताया। राजनीति वह दारू है कि पहले ही घूंट से किक मारती है।


इधर छात्र संघों के पदाधिकारी यही कीर्तन भरी मनौती मांग रहे हैं कि- ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू।’ नौजवानियां अंगड़ाइयां ले रही हैं..यूपी में।            

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