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चार दिन की चांदनी

एक बड़ा-सा घर, उसमें ढेर सारे किरदार। एक लव-स्टोरी और बहुत सारे रोड़े। एक झूठ और उसे छुपाने के लिए झूठ पर झूठ। अंत में सब लोग एक जगह और फिर कॉमेडी भरे एक्शन...

चार दिन की चांदनी
Fri, 09 Mar 2012 11:13 PM
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एक बड़ा-सा घर, उसमें ढेर सारे किरदार। एक लव-स्टोरी और बहुत सारे रोड़े। एक झूठ और उसे छुपाने के लिए झूठ पर झूठ। अंत में सब लोग एक जगह और फिर कॉमेडी भरे एक्शन सीन। बड़े पर्दे पर छह सौ छप्पन दफा देखे जा चुके इस फॉमरूले को अगर निर्देशक बार-बार ट्राई करते हैं तो जाहिर है कि अभी भी इसमें कुछ तो रस बाकी है, लेकिन दिक्कत तब होती है, जब इस रस को निचोड़ने वाले हाथों में ही दम न हो।

रॉयल होने का गुरूर पाले बैठे राजस्थान की किसी रियासत के पूर्व राजा (अनुपम खेर) का लंदन में पढ़ रहा बेटा वीर (तुषार कपूर) अपनी बहन की शादी में अपनी पंजाबी गर्लफ्रेंड चांदनी (कुलराज रंधावा) को ले तो आता है, लेकिन पिता से सच नहीं बोल पाता। बेटे  को इसी लड़की से शादी करनी है, लेकिन बाप को चाहिए किसी शाही राजपूत खानदान की बेटी। शादी के इन चार दिनों में चांदनी के मां-बाप (फरीदा जलाल और ओम पुरी) के अलावा और भी कई किरदार अपनी असली पहचान छुपा कर आते हैं। यहां तक कि वीर को भी चांदनी के लिए पप्पी सरदार बनना पड़ता है। अंत में राजा के दुश्मनों को सबक सिखा कर ये सब उसके झूठे गुरूर को तोड़ते हैं और हो जाती है हैप्पी एंडिंग।

ऐसा नहीं है कि इस कहानी पर एक अच्छी रोमांटिक-कॉमेडी नहीं बनाई जा सकती। स्क्रिप्ट के साथ कायदे से खेला जाए तो यह काम बखूबी हो सकता है और दसियों बार हुआ भी है। लेकिन इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी ही इसकी स्क्रिप्ट है, जो एक तय स्तर से ऊपर उठ ही नहीं पाती। घिसे हुए चुटकुलों और कॉमिक-पंच के बाद अगर कुछ न मिले तो अश्लील संदभरें का सहारा लेकर भी यह फिल्म आपके चेहरे पर मुस्कान तो लाती है, लेकिन उसे ठहाकों में तब्दील नहीं कर पाती। दिक्कत कैरेक्टराइजेशन में भी है। कॉमेडी फ्लेवर वाली फिल्म है तो क्या सब लोग उसमें आधे पागल और जोकरनुमा ही होंगे? जिसे देखिए वही चिल्लाए जा रहा है।

तुषार कपूर पर्दे पर खुद जितना हंसे हैं, उसका दसवां हिस्सा भी वे दर्शकों को नहीं हंसा पाते हैं तो कसूर उनसे ज्यादा उनके कमजोर किरदार का है। फिल्म में रोमांस है, लेकिन इसकी खुशबू सिरे से नदारद है। ढेरों चरित्रों की भीड़ में ज्यादातर का स्वभाव ही उभर कर नहीं आ पाया है और न ही उन्हें निभाने वाले कलाकारों का कायदे से इस्तेमाल हो पाया है। बरसों बाद नजर आए चंद्रचूड़ सिंह, हरीश, अवतार गिल, अनीता राज, हेमंत पांडेय, जॉनी लीवर जैसे कलाकारों से फिल्म कुछ नहीं करवा पाती।

तुषार कपूर की अपनी सीमाएं हैं और वह जैसे-तैसे उनमें रह कर अपना काम कर ही जाते हैं। कुलराज रंधावा जरूर प्रभावित करती हैं। अनुपम खेर और ओम पुरी मंजे हुए हैं और किरदारों में बखूबी समा भी जाते हैं। मुकुल देव, सुशांत सिंह, राहुल सिंह ठीक रहे। फिल्म में कई हिट पुराने गानों के टुकड़ों का इस्तेमाल है और बस वही सुहाते भी हैं। कोशिश तो निर्देशक समीर कार्णिक ने काफी की है कि पुराने गानों की तरह हिट फिल्मों के पुराने फॉमरूलों को लेकर वह एक शानदार फिल्म बना लें, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है।

कलाकार: तुषार कपूर, कुलराज रंधावा, अनुपम खेर, ओम पुरी
निर्माता: समीर कार्णिक
निर्देशक: समीर कार्णिक
संगीत: संदेश शांडिल्य, अभिषेक रे
गीत: संदीप श्रीवास्तव
डीडी

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