मृत्यु का उत्सव
अभिनेता अनुपम खेर ने अपने पिता के निधन के बाद साहस दिखाया और शोक मनाने की बजाय एक रॉक बैंड को बुलाकर मृत्यु का उत्सव...
अभिनेता अनुपम खेर ने अपने पिता के निधन के बाद साहस दिखाया और शोक मनाने की बजाय एक रॉक बैंड को बुलाकर मृत्यु का उत्सव मनाया। क्योंकि उनके पिताजी एक हंसमुख, दिलखुश इंसान थे और उन्हें उनके मृत्यु पर मातम मनाना कतई पसंद नहीं आता। सांत्वना के लिए आने वाले मित्रों को भी उन्होंने संदेश भेजा कि वे शोक वाले कपड़े पहनकर न आएं। ओशो के संन्यासियों के लिए यह बात जरा भी नई नहीं है।
मृत्यु का उत्सव ओशो ने अपने सामने ही शुरू करवाया था। जो भी संन्यासी ओशो कम्यून में शरीर छोड़ता, उसके शरीर को सिर्फ दस मिनट तक बुद्ध हॉल में रखा जाता, संगीत की धुन पर सभी साधक नाचते-गाते और आनंदपूर्वक उसे मरघट ले जाते। वहां पर भी हमारे संगीतकार अपने साजों के साथ पहुंचते और सभी लोग नाचकर अपने मित्र को विदा करते। जब चिता जलने लगती, तब सभी लोग शांत खड़े होकर ओम का गुंजन करते। ओंकार की सामूहिक तरंगें पूरे वातावरण को पवित्र कर देतीं।
यह एक नया ध्यान है, जो हमारी जीवन शैली बन गया है। जिस तरह हम जीने का उत्सव मनाते हैं, उसी तरह मृत्यु उत्सव भी मनाते हैं। इसके पीछे एक मौलिक दृष्टि है- एक तो, मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, जीवन का शिखर है। आप कैसे जीवन जीते हैं, उसका प्रमाण आपकी मृत्यु में मिलता है। मृत्यु एक अटल घटना है, फिर उससे भय क्यों, उसके आस-पास इतना नाटक क्यों? मृत्यु को भर आंख देखना चाहिए, तभी आप जीवन को समझ पाएंगे। मरघट पर जब चिता जलती है, तो समझ में आता है कि संसार के नाम पर हम जो कुछ इकट्ठा कर रहे हैं, उसका क्या मूल्य है। उस जलती हुई चिता पर ध्यान करना, ताकि अपनी मृत्यु भली-भांति दिखाई पड़े। दूसरे, मृत्यु पर शोक मनाना बिल्कुल गलत है। यह जाने वाले के लिए शुभ नहीं है। अगर मृत्यु का भय निकल जाए, तो जीवन में आनंद के द्वार खुल जाएंगे।
अमृत साधना