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दरगाहों के बिना दिल्ली का क्या मतलब

आप दिल्ली को तब तक नहीं जान सकते, जब तक दरगाहों को न जान लें। सूफी पीरों का दिल्ली से खास रिश्ता...

दरगाहों के बिना दिल्ली का क्या मतलब
Fri, 02 Mar 2012 10:08 PM
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आप दिल्ली को तब तक नहीं जान सकते, जब तक दरगाहों को न जान लें। सूफी पीरों का दिल्ली से खास रिश्ता है। हमारी ऐतिहासिक इमारतें, मसलन कुतुब मीनार और लाल किला तो मुस्लिम हमलावरों की जीत का निशान हो सकती हैं। कुतुब मीनार के पास बनी कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद तो ऐसा दावा करती भी है। लेकिन सूफियों ने इस्लाम को हिंदुओं के नजदीक लाने का काम किया।

सादिया देहलवी ने इस सिलसिले में कमाल की रिसर्च की है। ‘द सूफी कोर्टयार्ड: दरगाह्ज ऑफ डेल्ही।’ हार्पर कॉलिन्स ने इसे छापा है। यह दिल्ली के सूफियों पर बेहतरीन किताब है। इसमें उनसे जुड़ी कहानियां और चमत्कार शामिल हैं। पिछले दौर के दिल्ली वालों के बारे में यह किताब काफी कुछ कहती है। यह कायदे से लिखी गई है। उसके चित्रंकन भी अच्छे हैं। सचमुच सादिया को सलाम करने का मन होता है।

इदी अमीन
पहली बात तो यह है कि मैं इस किताब का शीर्षक ही नहीं समझ पाया। ‘कल्चर ऑफ द सेपल्कर। इदी अमीन्स मॉन्स्टर रिजीम।’ उसमें इदी अमीन की तस्वीर कवर पर है। मुङो लगा कि उगांडा के पहले अश्वेत शासक पर होगी।

इदी अमीन ने जब वहां की गद्दी संभाली थी, तो उससे कुछ पहले ही मैं वहां गया था। उगांडा में रहने वाले हिन्दुस्तानियों ने मुङो बुलाया था। मैं जिस भी शहर में गया, वहां मैंने कुछ नोटिस देखे। उसमें हिन्दुस्तानी दुकानों के बाहर लिखा था, ‘प्रॉपर्टी ऐंड बिजनेस ऑन सेल।’ यानी कारोबार और जायदाद बिकाऊ है। उनको लगता था कि जब अश्वेत लोग आएंगे, तो उनके घर और दुकानों को लूट लिया जाएगा। इसी डर से कई लोग सब कुछ समेटकर इंग्लैंड और कनाडा चले गए थे। इदी अमीन ने सत्ता हथिया ली। वह उगांडा के राजा बन गए। सबसे पहले उन्होंने गोरे लोगों को रास्ता दिखाया। वह एक सिंहासन पर बैठते थे। अंगरेजों को हुक्म था कि उन्हें शहर भर में पालकी अंदाज में घुमाएं। फिर इदी ने अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाने शुरू कर दिए।

एक गजब का हरम भी बनाया। कुछ गुजराती लड़कियों पर उसकी नजर चढ़ी। वे चीनी और कॉटन मिल के मालिकों की बेटियां थीं। वे परिवार उगांडा छोड़कर चले गए। एक दौर के बाद इदी को भी अपनी हत्या का डर सताने लगा। वह भागकर मक्का चले गए। वहीं उनके आखिरी दिन बीते। अमीन की शख्सियत इतिहास व मनोविज्ञान के नाते अपील करती रही है। वैसे मदनजीत सिंह की यह किताब बहुत अच्छी नहीं है। वह कोई खास जानकार नहीं हैं। उन्हें तो जीवनी तक लिखना नहीं आता। यह किताब किसी जानकार को लिखनी चाहिए थी। हैरत है कि इसे इतने मशहूर प्रकाशक ने क्यों छापा? मैं इतना जरूर जानता हूं कि हिन्दुस्तान में किसी से इसके बारे में पूछा ही नहीं गया। शायद पेंगुइन के अंगरेज पार्टनर ने इसे छापने का फैसला ले लिया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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