साहित्य: दिसंबर से दिसंबर
ये दिन आत्म संघर्ष के हैं। कई साहित्यकार आत्म संघर्ष में लिप्त हैं। आत्माएं दोफाड़ हैं। एक आत्मा का दूसरी आत्मा से संघर्ष छिड़ गया है। किसी की तीन-तीन...
ये दिन आत्म संघर्ष के हैं। कई साहित्यकार आत्म संघर्ष में लिप्त हैं। आत्माएं दोफाड़ हैं। एक आत्मा का दूसरी आत्मा से संघर्ष छिड़ गया है। किसी की तीन-तीन हैं। एक की तो सात आत्माएं एक-दूसरे से झगड़ रही हैं। इस महान संघर्ष के मूल में अकादमी का एक इनाम है।
हर लेखक दस टुच्चे, पांच लुच्चे और तीन सुच्चे इनाम जुगाड़ता है। इस प्रकार का समाजार्थिक संघर्ष करते हुए इनाम की खबर के लिए चातक बन अपनी चोंच खोले दिसंबर से बैठ जाता है और कमेटी के बरसने का इंतजार करता रहता है। 73 साल का रचनाकार और उसके लठैत, 55 साठ के आसपास का एक आलोचक, उसके वकील और साठोत्तर कवि के सिपहसालार सभी संघर्षरत हैं। यह संघर्ष बड़ा ही विकट रचनात्मक है। जो लेखक इससे नहीं गुजरा, उसे साहित्यकार होने का हक नहीं।
आत्म संघर्ष एक प्रकार की ‘कृच्छ-संपर्क-साधना’ है। इड़ा, पिंगला, सुषम्ना को जगाना इसके आगे बच्चों का खेल है। इसमें पहले क्षण में आत्मा दोफाड़ हो जाती है। आपस में घटिया पड़ोसियों की तरह झगड़ने लगती हैं।
अब तक क्या किया तूने? दो दावतें दीं। पांच जगह उनकी रद्दी किताब का रिव्यू किया। 60-65-75 के होने पर सम्मेलन कराया। ‘ऐतिहासिक योगदान’ की चर्चा कराई।
मेरा मुंह न खुलवा। दस बार उस हरामी के घर रसमलाई पहुंचाई, उसके मेहमानों को स्टेशन से लाया, इसी घर में बाप की तरह टिकाया। तुझे क्या मिला? पहली आत्मा बोलती है- साला गुरुघंटाल! बस एक बार नाम आ जाए, फिर देखना क्या करती हूं उसका। दूसरी आत्मा दुखी होकर कहती है- वो परले दरजे का बेईमंटा है। तू क्यों उसके चक्कर में आई? तू नीच, तू कमीनी चुप! शटअप! टीवी की बहसों की तरह वे एक-दूसरे पर पिल पड़ती हैं। परमात्मा मत्था ठोंकते हैं- ये मेरी आत्माओं को क्या हुआ?
दिसंबर पर दिसंबर निकल रहे हैं। एक कवि, दो कथाकार, दो आलोचक ब्लडप्रेसर चेक कराने क्लिनिकों में भरती हैं। उनकी आत्माएं एक-दूसरे पर फायर कर बैठी हैं। दिसंबर गुजरा जा रहा है और अकादमी का वह लिफाफा नहीं बना है। कब बनेगा? बताओ जोगीजी?
आस रख। सांस रख। आत्माएं अपने आप से कहती डोलती हैं। नाम आएगा, जरूर आएगा। पार्टी होगी जरूर। इतने दौरे करवाए। इतनी कमेटियों में डाला और डलवाया। दो तीन गुना पेमेंट किया। यह निवेश अकारथ न जाएगा। कलयुग का पूर्ण पतन नहीं हुआ है। गुरुजी कह गए हैं- होगा, होगा, होगा। आत्माएं दिसंबर टू दिंसबर यही संघर्ष करती हैं।
बंधुओ! इस आत्मसंघर्ष का इतिहास नहीं होता। होता तो सबकी आत्माओं का रिकॉर्ड होता। होता तो साहित्य का अब तक अव्यक्त अद्भुत ‘अंडर ग्राउंड’ निकलता। फ्रायड कब्र से उठकर स्टडी करने आ बैठते। उन्हें अपने सिद्धांत बदलने पड़ते। चेतन, अवचेतन, उपचेतन के साथ चौथा। ‘नकद निवेशन चेतन सिद्धांत’ बनाना पड़ता, जिसे सूक्ष्म में ‘ननिवेचन’ कहा जाने लगता। ‘ये अंदर की बातें’ बाहर निकलतीं, तो नए साहित्य सिद्धांत बनते, ‘साहित्य समाज का दर्पण है या कामना का दर्पण है?’ ‘साहित्य लेखक की हैसियत का दर्पण है या संसाधनों का?’ ‘साहित्य सत्ता का दर्पण है या सरकार का?’
इस तरह के कुछ नए हिंदी सिद्धांत निकलते और बच्चे सच्ची बातें पढ़ा करते। साहित्य के इतिहास का अंत हो जाता। ‘हिंदी सारी थियरीज को चित करने वाली होगी।’- ‘मत्सर महाराज’ हमारे कान में भविष्यवाणी कर गए हैं।