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वो सुबह कभी तो आएगी

रिटायरमेंट के बाद मा-बदौलत जिस काम को निश्चिंत भाव में नियमपूर्वक संपन्न करता हूं, वह है अखबार पढ़ना। पहले भी पढ़ता था, लेकिन वह इत्मीनान नहीं...

वो सुबह कभी तो आएगी
Thu, 08 Dec 2011 10:35 PM
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रिटायरमेंट के बाद मा-बदौलत जिस काम को निश्चिंत भाव में नियमपूर्वक संपन्न करता हूं, वह है अखबार पढ़ना। पहले भी पढ़ता था, लेकिन वह इत्मीनान नहीं था। दफ्तर में खुद के वजूद के लिए अंगूठा लगाने का हौवा हफ्ते में पांच दिन बना रहता। इस विलंबित शर्मोक्ति को सेवा-निवृत्ति के बाद प्रकट कर रहा हूं कि जितनी तन्मयता अखबार पढ़ने में रहती, वैसी दफ्तर की फाइलों को पलटने में कम ही रही। जिस दिन अखबार की छुट्टी होती, महसूस होता कि नित्य कर्म का एक आइटम बाधित हो रहा है।

अखबार के संदर्भ में एक ऐब भी है अल्ला के इस बंदे में। ताजे अखबार के पन्ने को यदि किसी और ने पलट लिए, तो महसूस होता कि जूठा हो गया अखबार। अखबार सुबह सूरज के साथ ही उठते हैं। कुछ दिनों से सूरज और अखबार में काफी साम्य है। जिस प्रकार सूरज की किरणें एक-सी होती हैं, अखबार की खबरें भी उसी गति को प्राप्त हैं। रोजाना वही घोटाला, वही लोकपाल बिल, अनशन की धमकी, विदेश में जमा काला धन, महंगाई का सियापा, दिग्भ्रमित- पक्षी और विपक्षी की कांव-कांव। टू-जी तो खबरों का महाकाव्य बन चुका है। एक जैसी खबर रोजाना पढ़ने के कारण बतर्ज दिल एक मंदिर, दिमाग एक गोदाम बन गया है घोटाले, भ्रष्टाचार, काले धन की खबरों का। तारीख बदलती है, खबरें सेम टू सेम।

खबरों के कुहासे में साहित्य का सूरज सिर्फ ‘रवि’-वार को झलक दिखाता है। काफी शोध के बाद निष्कर्ष की यह मछली मेरे कांटे में फंसी है कि सभी अखबारों में खेल वाला पन्ना अंत में क्यों होता है। राजनीतिक उठा-पटक,  हिंसा- दुर्घटना, भ्रष्टाचार, लूटपाट, बलात्कार आदि से पटी खबरों को बांचने के बाद श्रीमान पाठक जी निरुपाय मन:स्थिति में सब कुछ खेल भावना से स्वीकारें। टेक एवरी थिंग स्पोर्टिगली।

इन दिनों डॉलर उछल रहा है। रुपया टूट रहा है। अमरूद दिल्ली में खरीदा जाता है, भाव इलाहाबाद का दुखी कर देता है। संसद अखाड़ा बन चुकी है। खेल-भावना से स्वीकार कर देवदास की गति प्राप्त होने से बचता हूं। किनारे रख दिया है अखबार उस सुबह के इंतजार में, जिसे साहिर साहब नहीं देख सके।

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