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मंदी के सच और झूठ

पिछले पांच साल से लगभग 9 फीसदी की रफ्तार से विकास पथ पर अग्रसर रही भारतीय अर्थव्यवस्था बीते तीन साल में दूसरी बार अचानक ‘रोड ब्लॉक’ से टकरा गयी...

मंदी के सच और झूठ
Wed, 07 Dec 2011 10:43 PM
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पिछले पांच साल से लगभग 9 फीसदी की रफ्तार से विकास पथ पर अग्रसर रही भारतीय अर्थव्यवस्था बीते तीन साल में दूसरी बार अचानक ‘रोड ब्लॉक’ से टकरा गयी है। बाहरी झटके और घरेलू चुनौतियों के रूप में सामने आई इस रुकावट से आर्थिक प्रगति की गति धीमी पड़ गयी है, जिससे लोगों के मन में कई सवाल कौंध रहे हैं। मसलन क्या देश पर मंदी के बादल मंडरा रहे हैं? क्या धनी देशों पर छाये वित्तीय संकट की मार हम पर भी पड़ेगी? क्या किचन का बजट और बिगड़ेगा? नौकरी बचेगी या नहीं? शेयर बाजार में बहार कब आयेगी? आमदनी दहाई के अंक में कैसे बढ़ेगी? इन्हीं सवालों के मद्देनजर अर्थव्यवस्था में आये मौजूदा धीमेपन को समझने की कोशिश की है हरिकिशन शर्मा ने।

मंदी नहीं धीमापन
अर्थव्यवस्था की प्रगति के चार मुख्य संकेत होते हैं। पहला, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर, दूसरा महंगाई और ब्याज दरें, तीसरा रोजगार और चौथा आयात और निर्यात का संतुलन। इसमें सबसे अहम है जीडीपी, जिसमें परिवर्तन को सामान्य भाषा में विकास दर कहा जाता है।

अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर अगर लगातार दो तिमाही यानी छह महीने तक नकारात्मक रहे तो उसे मंदी कहा जाता है। फिलहाल ऐसी स्थिति भारत में नहीं है, क्योंकि चालू वित्त वर्ष में अब तक इसकी विकास दर पहली तिमाही में 7.7 प्रतिशत तथा दूसरी में 6.9 प्रतिशत है और वित्त मंत्री का अनुमान है कि पूरे वर्ष में यह लगभग साढ़े सात फीसदी रहेगी। इस तरह स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में मंदी नहीं है। हां वृद्धि दर में धीमापन जरूर है। कृषि की स्थिति में पिछले साल की अपेक्षा कुछ सुधार है, लेकिन उद्योगों में इसका असर अधिक दिखाई देता है। खासकर विनिर्माण में।

असल में भारतीय अर्थव्यवस्था ने सितंबर 2008 की वित्तीय सुनामी के थपेड़े सहने से पहले 2003 से 2008 के बीच अभूतपूर्व 9 फीसदी वृद्धि दर हासिल की। तीव्र आर्थिक विकास के इस दौर के आलोक में मौजूदा विकास दर निश्चित तौर पर धीमी है। फिर भी यह चीन को छोड़ कर बाकी अन्य धनी और विकसित देशों के मुकाबले काफी अधिक है। जापान, अमेरिका और यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं मंदी की गिरफ्त में हैं और वे बमुश्किल एक फीसदी की रफ्तार से बढ़ पा रही हैं।

महंगाई और ब्याज दरें
घरेलू मोर्चे पर सबसे बड़ी चुनौती महंगाई डायन है। दरअसल महंगाई ऐसा छुपा टैक्स है, जिसकी मार सब पर पड़ती है, लेकिन सबसे ज्यादा उन पर जिनकी आमदनी न्यूनतम है। सालभर से ज्यादा वक्त गुजरने के बावजूद महंगाई बेकाबू है। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर अक्तूबर में 9.73 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी। इसे नियंत्रित करने के राजकोषीय यानी सरकारी उपाय और मौद्रिक यानी रिजर्व बैंक की ओर से किये गये उपाय अब तक बेअसर रहे हैं।

आरबीआई मार्च 2010 से लेकर अब तक 13 बार ब्याज दरें बढ़ा चुका है, लेकिन महंगाई नीचे आने का नाम नहीं ले रही। नौकरीपेशा वाले मध्यम वर्ग और उद्योग जगत पर इसकी दोहरी मार पड़ी है। बार-बार नीतिगत दरों में इजाफे से लोन महंगा हो गया है। इससे करीब पांच करोड़ परिवारों की ईएमआई बढ़ गयी, जबकि व्यवसाइयों के लिए निवेश जुटाना मुश्किल हो गया है।

दूसरी दिक्कत यह है कि पहले महंगाई खाद्य वस्तुओं में थी, अब यह विनिर्मित वस्तुओं में भी घर कर गयी है। इस तरह किचन का बजट बिगड़ रहा है। इसके अलावा पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य में उतार- चढ़ाव भी इसमें आग में घी का काम करते हैं। बहरहाल सरकार का अनुमान है कि मार्च के अंत तक महंगाई दर में गिरावट आयेगी।

घाटे का खेल
इस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था जिस आर्थिक बवंडर से गुजर रही है, उसमें घरेलू चिंताओं के अलावा उसे बाहरी झटके भी ङोलने पड़ रहे हैं। सरकार के लिए राजकोषीय घाटे को काबू में रखना मुश्किल साबित हो रहा है। बजट 2011-12 में राजकोषीय घाटा 4.6 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया गया था, लेकिन अप्रैल से अक्तूबर के दौरान ही यह 3.07 लाख करोड़ रुपये हो गया, जो बजट लक्ष्य का 74.4 फीसदी है। इसका सीधा असर ब्याज दरों के जरिये उद्योग जगत तथा आम लोगों पर पड़ता है।

दरअसल अगर सरकार अधिक पैसा बाजार से उधार लेती है तो ब्याज दरें ऊंची रहती हैं तथा उद्योग में निवेश के लिए पूंजी पर्याप्त मात्र में उपलब्ध नहीं हो पाती। इसका एक असर औद्योगिक विकास पर असर पड़ता है। दूसरी चुनौती है चालू खाते का घाटा। यह काफी हद तक बाहरी कारकों से प्रभावित होता है। विकसित और धनी देशों में मंदी से निर्यात पर असर पड़ा है, लेकिन इसकी भरपाई एशिया तथा अफ्रीका के गैर परंपरागत बाजारों में सामान भेज कर की जा सकती है।

तेल की धार
भारत अपनी जरूरत का तीन चौथाई से अधिक तेल आयात करता है। फिलहाल कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर चल रही है। अगर ईरान के विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम को लेकर पश्चिम एशिया में तनाव बढ़ता है तो यह 250 डॉलर प्रति बैरल तक जा सकती है। यह ऐसा क्षेत्र है, जिस पर सरकार का बस नहीं है। ऐसी स्थिति में उसका आयात बिल बढ़ना तय है। यह डॉलर की मांग बढ़ायेगा। इससे रुपये की अस्थिरिता और बढ़ सकती है।

धड़ाधड़ रुपया
रुपया ऐतिहासिक स्तर तक गिरने के बाद 51.1 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर है। चार महीने में यह 16.53 प्रतिशत गिर चुका है, जुलाई में यह 43.85 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर था। इसकी एक वजह विदेशी संस्थागत निवेशकों की बेरुखी भी है। वे भारत से पूंजी निकाल रहे हैं। एफआईआई ने नवंबर में ही 3200 करोड़ रुपये भारतीय पूंजी बाजार से निकाले हैं। इस तरह चालू वित्त वर्ष में अब तक एफआईआई ने महज 17,480 करोड़ रुपये का निवेश किया है, जबकि 2010 में उन्होंने 1,79,674 करोड़ रुपये का निवेश किया था। अब तक आरबीआई इसे थामने के लिए खुल कर सामने नहीं आया है। उसके पास 304 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है, लेकिन अगर वह रुपये को थामने पर यह खजाना खाली करता है तो भुगतान संतुलन कायम रखना चुनौती होगा।

तरक्की की संभावनाएं
भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से घरेलू मांग पर आधारित है। फिलहाल यहां उपभोग का स्तर निम्न होने के कारण अब भी मांग कायम है। घरेलू बचत और निवेश की उच्च दर भी अच्छा संकेत हैं। हालांकि नीति निर्धारण और क्रियान्वयन में अवांछित विलंब से स्थिति बिगड़ सकती है।

मसलन मल्टी ब्रांड खुदरा में एफडीआई की इजाजत मिलने के बाद उम्मीद थी कि सरकार आर्थिक सुधारों के एजेंडे पर आगे बढ़ेगी, लेकिन राजनीतिक विरोध के आगे फिलहाल यह मुश्किल लग रहा है। सकारात्मक सोच और रचनात्मक कदम उठा कर इस धीमेपन को दूर किया जा सकता है। वैसे भी दुनिया के दिग्गज मुल्क भी भारत और चीन पर नजर टिकाए हैं कि ये दोनों देश मौजूदा संकट से उबरने में दुनिया को रास्ता दिखायेंगे।

नौकरियों पर नहीं संकट, नए अवसर भी!
कृषि और संबद्ध क्षेत्र अब भी सबसे बड़ा रोजगारदाता है। लगभग 21 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी इससे जुड़ी है, जबकि गैर कृषि क्षेत्र में 19 करोड़ लोगों को रोजगार प्राप्त है। सितंबर 2008 की मंदी के चलते रोजगार के अवसरों का विस्तार थमा था, लेकिन सरकार के प्रोत्साहन पैकेज के जरिये उबरे उद्योग जगत में फिर से नौकरियों की बहार आयी। अब तक प्रमुख कॉलेजों में कैंपस प्लेसमेंट औसत रहा है।

वैसे ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा ने कृषि और संबंद्ध क्षेत्रों में लगे मजदूरों के लिए एक बेहतर विकल्प पेश किया है। यों भी इस बार लोगों की नौकरियों या कारोबार पर वैसा संकट नहीं है, जैसा पिछली बार था। हाल ही में पीरामल हेल्थकेयर के अजय पीरामल ने एक वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में कहा कि बाजार की धीमी रफ्तार के कई फायदे भी हैं। सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे घरेलू बाजार में एकता देखने को मिलती है, जिससे लोगों का निवेश ज्यादा सुरक्षित रहता है।

उन्होंने कहा कि बाजार की वर्तमान स्थिति से निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जल्द ही रोजगार और काम के कई नए अवसर सामने आएंगे। खासतौर से फार्मास्यूटिकल कंपनियों में। जानकारों का यह भी मानना है कि आने वाले समय में महंगाई के कम होने की भी संभावना है, जिससे हो सकता है कि तेल समेत दूसरी घरेलू चीजों के दामों में गिरावट देखने को मिले।

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