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बदलाव का विरोध

मन बड़ा अजीब है, एक तरफ वह सतत नई चीजें चाहता है, दूसरी तरफ बदलाव से डरता है। पुराने को पकड़कर रखना चाहता है। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह पुराने से ऊब जाता...

बदलाव का विरोध
Sun, 04 Dec 2011 08:50 PM
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मन बड़ा अजीब है, एक तरफ वह सतत नई चीजें चाहता है, दूसरी तरफ बदलाव से डरता है। पुराने को पकड़कर रखना चाहता है। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह पुराने से ऊब जाता है, लेकिन नए के साथ उसे बेचैनी भी होती है। जब भी नए विचार आते हैं, तब पूरा समाज उसका विरोध करता है, क्योंकि नया यानी अज्ञात। अज्ञात से आदमी सदा ही आशंकित रहा है।

इसी आशंका के कारण वह जीवन में सुरक्षा चाहता है। लेकिन जीवन नितांत असुरक्षित है, सच तो यह है कि असुरक्षा का नाम ही जीवन है। सुरक्षा कहीं है तो मृत्यु में, वहां न कोई बदलाव है न असुरक्षा। लेकिन वैसी सुरक्षा कोई नहीं चाहता। परिवर्तन का विरोध करने के कारण हम जीवन का भी विरोध करने लगते है।

मन सिर्फ बाहरी चीजों को देखता है, व्यक्तियों को देखता है, घटनाओं में उलझता है और उसे लगता है कि चीजें हाथ से छूट-छूट जा रही हैं। जितनी छूटती हैं, उतनी पकड़ने की कोशिश करता है। बाहरी चीजों को पकड़ना धूप को बांधने जैसा है। परिवर्तन से तालमेल बिठाने का उपाय है, अपनी नजरों को बाहर से हटाकर भीतर ले आना।

ओशो ने इस तथ्य को बखूबी समझाया है: ‘जानने वाले के अतिरिक्त सब कुछ परिवर्तन है। क्या तुमने कोई ऐसी चीज देखी है, जो न बदलती हो? यह सारा संसार परिवर्तन की घटना है। लेकिन जानने वाला सदा पीछे है। वह सदा जानता है, वह कभी जाना नहीं जाता।’ बाह्य घटनाओं में उलझा हुआ अपना मन थोड़ा अंतर्मुखी कर लें। आंखें दृश्य को देखने के साथ थोड़ी अंदर भी मुड़ने लगें, तो आपको पता चलेगा कि बदलाव सिर्फ बाहर होता है, वह एक बहती हुई ऊर्जा है, वह जीवन का स्वभाव है। जिस तरह पानी बहता रहे, तो साफ रहता है, उसी प्रकार जीवन बदलता रहे, तो ताजा रहता है।
अमृत साधना

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